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है पात्र शुद्ध स्वभाव अरु, दाता कहा उपयोग को । सम्पन्न होता दान जब, सम्यक्त्व का शुभ योग हो ॥ ५३ ॥ उपयोग का निज रूप में ही, लीन होना दान है। है यह अनोखा दान जो, देता परम निर्वाण है | शुभ दान से हो देवगति, अरु शुद्ध से मुक्ति मिले । चैतन्य उपवन में रहो, तब पुष्प आनन्द के खिलें ॥ ५४ ॥ सत्श्रावकों को शुद्ध आवश्यक, कहे षट् कर्म हैं । जो भव्य इनको पालते, मिलता उन्हें शिव शर्म है | रचते सदा जो प्रपंचों को, वे भ्रमे संसार में | मेरी लगे भव पार नैया, फँसे नहीं मझधार में || ५५ ।।
(१) मैत्री भावना जग के सकल षट् काय प्राणी, ज्ञान मय रहते सभी । मुझको रहे सत्वेषु मैत्री, हो सफल जीवन तभी ॥ व्यवहार में सब प्राणियों के प्रति हो सद्भावना । निश्चय स्वयं से प्रीति हो, बस यही मैत्री भावना ॥ ५६ ।।
(२) प्रमोद भावना जो मोक्ष पथ के पथिक हैं, निज आत्म ज्ञानी संत हैं। वे देशव्रत के धनी हैं अथवा, मुनि गुणवन्त हैं | उन ज्ञानियों को देखकर, भर जाए हियरा प्रेम से । बस हो प्रमोद सु भावना, श्रद्धान मय व्रत नेम से || ५७ ॥
(३) कारुण्य भावना संसार में जो जीव दु:ख से, त्रस्त साता हीन हैं। वे अशुभ कर्मोदय निमित से, दरिद्री अरू दीन हैं | ऐसे सकल जन दीन दुखियों, पर मुझे करूणा रहे । दु:ख मय कभी न हो निजातम, सत धरम शरणा गहे ॥ ५८ ॥
(४) माध्यस्थ भावना जो जीव सत्पथ से विमुख हैं, धर्म नहिं पहिचानते । अज्ञान वश पूर्वाग्रही, एकान्त हठ को ठानते ॥ ऐसे कु मार्गी हठी जीवों, पर मुझे माध्यस्थ हो । मैं रखू समता भाव सब पर, स्वयं में आत्मस्थ हो ॥ ५९ ॥