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निरतिचार सम्यक्त्व पालन की भावना
शंका नहीं कांक्षा नहीं अरू, न ही विचिकित्सा धरूं । मैं अन्य दृष्टि की प्रशंसा, और न स्तुति करूं ॥ अतिचार भी न लगे कोई मुझे समकित में कभी । समकित रवि के तेज में, यह दोष क्षय होवें सभी ।। २६ ।
सम्यक्त्व के आठ गुण मय भाव पूजा संवेग
हे प्रभो ! अब मैं न पडूं, संसार के जंजाल में । मुझको भटकना न पड़े, जग महावन विकराल में । आवागमन से छूट जाऊँ, बस यही है भावना | संवेग गुण मय करूं पूजा, धारि चतु आराधना || २७ ||
निर्वेद
संसार तन अरू भोग दुःख मय, रोग हैं भव ताप हैं । उनके निवारण हेतु यह निर्वेद गुण की जाप है । निःशल्य हो निर्द्वन्द हो, निर्लोभ अरू नि:क्लेश हो । निर्वेद गुण धारण करूं, यह आत्मा परमेश हो ॥ २८ ॥
निन्दा
यह शल्य के मिथ्यात्व के, कुज्ञान मय जो भाव हैं । जितने अशुभ परिणाम अरू सब राग द्वेष विभाव हैं ॥ अक्षय सु पद प्राप्ति के हेतु, नित करूं आलोचना । निन्दा करूं मैं दुर्गुणों की, भव भ्रमण दुःख मोचना ॥ २९ ॥
ग
निज दोष गुरू के सामने, निष्कपट होकर के कहूं । जो जो हुई हैं गल्तियाँ, उनका सुप्रायश्चित चहूं ॥ निर्दोष होने के लिये, निन्दा गर्हा उर में धरूं । अन्तर विकारों को जलाकर, मुक्ति की प्राप्ति करूं ॥ ३० ॥
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उपशम
भीतर भरा निज ज्ञान सिंधु, जलधि सम लहरा रहा।
ऐसी परम सित शांति को सम्यक्त्व गुण उपशम कहा ॥ सित शीतल, समता युक्त
भव रोग हरने हेतु मैं, नित ज्ञान में ही आचरूं ।
उपशम सुगुण से करूं पूजा, शान्त समता में रहूं ॥ ३१ ॥