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पाँचों महाव्रत समिति पाँचों, गुप्तियाँ त्रय आचरूं । इन पचहत्तर गुण पुंज से, देवत्व पद प्राप्ति करूं || १८ ॥ जब तक करूं अरिहन्त, सिद्धों का गुणों से चिन्तवन । निज आत्मा की साधना, मैं करूं आराधन मनन । तब तक इसे व्यवहार पूजा, कही श्री जिन वचन में । यह वह कुशल व्यवहार है, जो हेतु निज अनुभवन में ॥ १९ ॥ अरिहन्त को जो, द्रव्य गुण पर्याय, से पहिचानता । निश्चय वही निज देव रूपी, स्व समय को जानता ।। सुज्ञान का जब दीप जलता है, स्वयं के हृदय में । मोहान्ध टिक पाता नहीं, आत्मानुभव के उदय में ॥ २० ॥ मैं मोह रागादिक विकारों से, रहित अविकार हूँ। ऐसी निजातम स्वानुभूति मय, समय का सार हूँ | यह निर्विकल्प स्वरूप मयता, वास्तविक पूजा यही । जो करे अनुभव गुण पचहत्तर, से भविकजन है वही ॥ २१ ॥
पूजा का महत्व और सम्यक्त्व के आठ अंग इस भाव पूजा विधि से, होता उदय सम्यक्त्व का । अष्टांग अरू गुण अष्ट सह, पुरुषार्थ जगता मुक्ति का ॥ मुझको नहीं शंका रहे, जिन वचन के श्रद्धान में | मैं सकल वांछा को तजूं, ज्ञायक रहूं निज ज्ञान में ॥ २२ ॥ जो वस्तु जैसी है सदा, वैसी रहे त्रय काल में । किससे करूं ग्लानि घृणा, क्यों पडूं इस जंजाल में ॥ नित रहे मेरी तत्व दृष्टि, मूढ़ता को मैं तजूं । तत्वार्थ के निर्णय सहित, स्व समय को मैं नित भजूं ॥ २३ ॥ निज गुणों को, पर औगुणों को, मैं सदा ढकता रहूँ। गर हो किसी से भूल तो भी, मैं किसी से न कहूँ ॥ कामादि वश गर कोई साधर्मी, धरम पथ से डिगे । तो मैं करूं वह कार्य जिससे, फिर सुपथ में वह लगे ॥ २४ ॥ मैं करूं स्थित स्वयं को भी. मोक्ष के पथ में प्रभो । साधर्मियों से नित मुझे, गौ वत्स सम वात्सल्य हो । व्यवहार में जिन धर्म की, मैं करूं नित्य प्रभावना । बहती रहे मम हृदय में, सु विशुद्ध आतम भावना ॥ २५ ॥