________________
१३. तीर्थंकर अयोध्या के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर जन्म लेते हैं एवं सम्मेदशिखर जी के
अतिरिक्त अन्य स्थानों से मोक्ष जाते हैं। प्रश्न - अवसर्पिणी काल के छटवें दुःषमा-दु:षमा काल का वातावरण कैसा रहता है? उत्तर - १. इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु २० वर्ष और शरीर की ऊँचाई ३ हाथ या ३.५
हाथ होती है। अंत में घटते - घटते ऊँचाई १ हाथ एवं आयु १५ या १६ वर्ष रह जाती है। यह काल भी २१००० वर्ष का होता है। शरीर का रंग काले धुएं के समान होता है। इस काल में मनुष्यों का आहार कंदमूल, फल, मछली आदि होता है। सब नग्न रहते हैं और भवनों से रहित होकर वनों में घूमते हैं। इस काल में मनुष्य प्रायः पशुओं जैसा आचरण करने वाले क्रूर, बहरे, अंधे, गूंगे होते हैं तथा बंदर जैसे रूप वाले, कुबड़े, बौने शरीर वाले, अनेक रोगों सहित होते हैं। इस काल में जन्म लेने वाले जीव नरक या तिर्यंच गति से आते हैं और मरण कर वहीं जाते हैं। दुःषमा - दुःषमा काल के अंत में ४९ दिन कम २१००० वर्ष के बीत जाने पर महा गंभीर एवं भीषण संवर्तक वायु चलती है जो कि सात दिन तक वृक्ष, पर्वत, शिला आदि को चूर्ण कर देती है। वहाँ स्थित जीव मूर्च्छित हो जाते हैं और कुछ मर भी जाते हैं। इससे व्याकुल मनुष्य और तिर्यंच शरण के लिये विजयार्ध पर्वत और गंगा सिंधु की वेदी में स्वयं प्रवेश कर जाते हैं। इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात व सम्पूर्ण ७२ युगल गंगा सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्ध वन के मध्य में प्रवेश करते हैं। इसके अतिरिक्त देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यातोंजीवों को उन प्रदेशों
में ले जाकर सुरक्षित रखते हैं। सात प्रकार की वृष्टि- छटवें काल के अन्त में मेघों के समूह सात प्रकार की निकृष्ट वस्तुओं की वर्षा सात - सात दिन तक करते हैं, जिनके नाम हैं - १. अत्यंत शीतल जल, २. क्षार जल, ३. विष, ४. धुआं, ५. धूलि, ६. वज्र एवं ७. जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य अग्नि ज्वाला । इस तरह कुल ४९ दिन तक वर्षा होती है। अवशेष बचे मनुष्य उन वर्षाओं से नष्ट हो जाते हैं। विष एवं अग्नि की वर्षा से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन तक चूर्ण हो जाती है। इस प्रकार दश
कोड़ाकोड़ी सागर का यह अवसर्पिणी काल समाप्त हो जाता है। प्रश्न - उत्सर्पिणी काल के छह कालों की क्या विशेषताएँ हैं? उत्तर - १. दुःषमा - दुःषमा - उत्सर्पिणी के प्रारंभ में सात-सात दिन तक क्रमशः पुष्कर
मेघ-सुखोत्पादक जल, क्षीरमेघ-क्षीरजल, अमृत मेघ-अमृत, रस मेघ-दिव्य रस की वर्षा करते है। यह वर्षा भी ४९ दिन तक होती है। इस वर्षा से पृथ्वी स्निग्ध धान्य तथा औषधियों को धारण कर लेती है। बेल, लता, गुल्म और वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते हैं। शीतल गंध को ग्रहण कर वे मनुष्य और तिर्यंच गुफाओं से बाहर निकलते हैं। उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वृक्षों के फल मूल पत्ते आदि को खाते हैं। इस काल में आयु, ऊँचाई, बुद्धि, बल आदि क्रमशः बढ़ने लगते हैं। इसका नाम भी दुःषमा-दुःषमा काल है।