SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ (यहाँ मात्र प्रकृतिबन्ध का कारण कहा गया है, परन्तु इन पाँच प्रत्ययों को चारों प्रकार के बन्ध का कारण समझना चाहिए।) (प्रश्न क्रमांक २९३ भी देखें) प्रश्न ३१२- मिथ्यात्व किसे कहते हैं? उत्तर - मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से अदेव में देवबुद्धि,अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि इत्यादि विपरीत अभिनिवेश (उल्टी मान्यता) रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं। (प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्त्वों के अन्यथा श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्व दो प्रकार का है - अगृहीत और गृहीत। अनादिकाल से जीव की शरीरादि पर पदार्थों में एकत्वबुद्धि अगृहीत मिथ्यादर्शन है तथा कुगुरु, कुदेव और कुधर्म के निमित्त से जो अनादिकालीन मिथ्यात्व का पोषण करना गृहीत मिथ्यादर्शन है।) (-छहढाला, दूसरी ढाल) प्रश्न ३१३- मिथ्यात्व के कितने भेद हैं? उत्तर - मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं- एकान्त मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व और विनय मिथ्यात्व । प्रश्न ३१४- एकान्त मिथ्यात्व किसे कहते हैं? उत्तर अनन्त धर्मयुक्त धर्मी के संबंध में 'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं' इत्यादिरूप एकान्त अभिनिवेश (अभिप्राय) को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे - बौद्ध मतावलम्बी पदार्थ को सर्वथा क्षणिक मानते हैं। प्रश्न ३१५- विपरीत मिथ्यात्व किसे कहते हैं? उत्तर - 'सग्रन्थ निर्ग्रन्थ है' अर्थात् वस्त्रधारी साधु होते हैं या 'केवलीग्रासाहारी (कवलाहारी) हैं' इत्यादि रुचि या श्रद्धा को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं। प्रश्न ३१६- संशय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ? उत्तर - 'धर्म का लक्षण अहिंसा है या नहीं' इत्यादि रूप से सन्देह युक्त श्रद्धा को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। प्रश्न ३१७- अज्ञान मिथ्यात्व किसे कहते हैं? उत्तर - जहाँ हिताहित के विवेक का कुछ भी सद्भाव नहीं होता है ऐसी श्रद्धा को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे- पशुवध में धर्म मानना। प्रश्न ३१८- विनय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ? उत्तर - समस्त देवों और समस्त मतों को समान मानने रूप श्रद्धा को विनय मिथ्यात्व कहते हैं। प्रश्न ३१९- अविरति किसे कहते हैं? उत्तर - हिंसा आदि पापों तथा इन्द्रिय मन के विषयों में प्रवृत्ति को अविरति कहते हैं। प्रश्न ३२०- अविरति के कितने भेद हैं ? उत्तर - अविरति के तीन भेद हैं- १. अनन्तानुबंधी कषाय उदय जनित अविरति। २. अप्रत्याख्यानावरण कषाय उदयजनित अविरति । ३. प्रत्याख्यानावरण कषाय उदयजनित अविरति । (अन्य अपेक्षा से अविरति के बारह भेद हैं - षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग न करना और पाँच इन्द्रियों और मन के विषय में प्रवृत्ति करना।) (लघु जैन सिद्धांत प्रवेसिका, प्रश्न १५९)
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy