SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८१ आदि २० प्रकृतियाँ पुण्य और पाप दोनों में गिनी जाती हैं, क्योंकि बीसों ही स्पर्शादि किसी को इष्ट, किसी को अनिष्ट होती हैं; इसलिए कुल प्रकृतियाँ १६८ हुई, इनमें से १०० पाप प्रकृतियाँ घटाने पर ६८ पुण्य प्रकृतियाँ शेष रहती हैं - साता वेदनीय-१, उच्च गोत्र-१, नरकायु के अतिरिक्त आयु-३, मनुष्यगति-१, मनुष्यगत्यानुपूर्वी -१, देवगति-१, देवगत्यानुपूर्वी-१, शरीर-५, बन्धन-५, संघात-५, पंचेन्द्रिय जाति-१, समचतुरस्रसंस्थान-१, वजवृषभनाराचसंहनन-१, अंगोपांग-३, प्रशस्तस्पर्श -८, प्रशस्तरस-५, प्रशस्तगन्ध-२, प्रशस्तवर्ण-५, प्रशस्तविहायोगति-१, अगुरुलघु-१, परघात-१, उच्छवास-१, उद्योत-१, आतप-१, त्रस-१, बादर-१, पर्याप्त-१, प्रत्येक-१, स्थिर-१, शुभ-१, सुभग-१, सुस्वर-१, निर्माण-१, आदेय-१, यशःकीर्ति-१, और तीर्थंकरप्रकृति-१। २.२ स्थितिबन्ध प्रश्न २४९- स्थितिबन्ध किसे कहते हैं? उत्तर - कर्मों के आत्मा के साथ रहने की काल मर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। (योग के निमित्त से कर्मस्वरूप से परिणत पुद्गलस्कन्धों का कषाय के निमित्त से जीव के साथ एकस्वरूप होकर रहने के काल को स्थितिबन्ध कहते हैं।)(- धवला, ६/१,९.६,२/१४६) प्रश्न २५०- आठों कों की उत्कृष्ट स्थिति कितनी-कितनी है? उत्तर - आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म की तीस-तीस कोड़ा-कोड़ी सागर । मोहनीयकर्म की सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर । नाम और गोत्रकर्म की बीस-बीस कोड़ा-कोड़ी सागर और आयुकर्म की तेतीस सागर। प्रश्न २५१- आठों कों की जघन्य स्थिति कितनी-कितनी है? उत्तर - आठों कर्मों की जघन्य स्थिति इस प्रकार है- वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम तथा गोत्र की आठ-आठ मुहूर्त और शेष समस्त कर्मों की अन्तर्मुहूर्त । प्रश्न २५२- एक कोड़ाकोड़ी किसे कहते हैं ? उत्तर - एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसे एक कोड़ाकोड़ी कहते हैं। प्रश्न २५३- सागर किसे कहते हैं? उत्तर - दश कोड़ाकोड़ी अद्धा पल्यों का एक सागर होता है। प्रश्न २५४- अद्धा पल्य किसे कहते हैं ? उत्तर - दो हजार कोश गहरे, दो हजार कोश लम्बे और इतने ही चौड़े गड्ढे में, कैंची से जिसका दूसरा भाग न हो सके - ऐसे उत्तम भोगभूमि के सात दिन तक की आयु के मेंढ़े के बच्चे के बालों को ठसाठस भरना। उसमें जितने बाल समायें, उनमें से एक-एक बाल को सौ-सौ वर्ष बाद निकालना । जितने समय में वह गड्ढा खाली हो जाये, उतने समय को एक व्यवहार पल्य कहते हैं।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy