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कि सब सामग्री होने पर भी इस फल की मेरे यहाँ कमी नहीं रहना चाहिये। और...राजा, व्यापारी के वेश में जो देव था उसके साथ जाने को तैयार हो गया।
चिंतन - चक्रवर्ती चाहता तो अपने आज्ञाकारी सेवक देवों के द्वारा वह अनुपम फल मंगवा सकता था?
माँ - हाँ बेटा, यह हो सकता था किन्तु उसे तो उस फल का स्वाद चखने की लोलुपता का ऐसा नशा चढ़ गया था कि उसे अपने यहाँ की सब सामग्री नीरस लगने लगी थी। सुभौम चक्रवर्ती ने विचार किया कि यदि मैं वहाँ अकेला जाऊँगा तो कितने फल खा सकूँगा? इसलिये मुझे वहाँ कुटुम्ब सहित जाना चाहिये, ऐसा विचार कर चक्रवर्ती ने विशाल चर्म रत्न नामक नौका में स्त्री पुत्रादि सहित समुद्र में प्रस्थान किया। अब तो देव मन ही मन अत्यंत प्रसन्न हो रहा था कि अकेले राजा को ही नहीं किन्तु उसके समस्त परिवार को मैं डुबा दूंगा। साथ ही उसे यह भी विचार आ रहा था कि जिसके हजारों देव सेवक हैं,नव निधि और चौदह रत्न हैं उसे मार डालना आसान काम नहीं है। सुभौम चक्रवर्ती समुद्र की तरंगों पर तैरती हुई नौका पर हास विलास करता हुआ सुख सागर में मस्त हो रहा था उसी समय अचानक वैरी देव ने भयंकर तूफान में नौका को फंसा दिया, नौका डोलने लगी। जिससे चक्रवर्ती का हृदय कांपने लगा, उसने भयभीत होकर देव से पूछा कि अब बचने का कोई उपाय है क्या ?
चिंतन - क्या देव ने बचने का कोई उपाय बताया?
माँ - हाँ, उसने कहा कि सागर के मध्य अब बचने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। यदि आप अनाद्यनिधन णमोकार मंत्र जो "णमो अरिहंताणं" है उसे पानी में लिखकर पैर से मिटा दें तो सब बच सकते हैं।
चिंतन - (आश्चर्य चकित होकर) माँ ! क्या ऐसे महामंत्र को राजा ने पैर से मिटा दिया !
माँ - हाँ बेटा, वह हित - अहित का विवेक छोड़कर तो घर से बाहर निकला ही था, अपने पास सर्व सम्पत्ति और अनुपम पुण्य का स्थान ऐसे चक्रवर्ती पद का भी जिसने विवेक खो दिया और अनजान व्यक्ति का विश्वास करके उसके साथ एक तुच्छ फल खाने के लोभ में चला गया। ऐसा वह सुभौम चक्रवर्ती इस अनित्य जीवन को नित्य बने रहने के लोभ से और मौत के भय से ज्यों ही णमोकार महामंत्र को लिखकर पैर से मिटाने लगा त्यों ही पाप का तीव्र उदय होने से नौका समुद्र में डूबने लगी। तब वह पूर्व भव का बैरी देव कहने लगा कि मैं वही रसोइया हूँ, जिसके ऊपर आपने गरम-गरम खीर डाली थी और जिसने तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिये थे, आर्तध्यान से मैं व्यंतर जाति का देव हुआ हूँ। अवधिज्ञान के द्वारा पूर्व भव का बैर याद आने पर मैंने उसका बदला लेने के लिए ही यह षडयंत्र रचा है। चक्रवर्ती ऐसे अपमान जनक शब्द सुनकर तथा कुटुम्ब परिवार सहित अपना घात देखकर तीव्र संक्लेश भाव से मरण को प्राप्त हुआ और सातवें नरक में चला गया। जहाँ असंख्यात-असंख्यात वर्षों का एक सागर होता है। ऐसे ३३ सागरों के लिये वह अनंत दुःख सागर में डूब गया।
चिंतन - (आश्चर्य से) माँ! वे चक्रवर्ती थे, सिद्ध पद प्राप्त करके अनन्त सुख का भोग करते और कहाँ सातवें नरक का अनन्त दुःख!
माँ - हाँ बेटा ! यह सब जीव के परिणामों की विचित्रता है। चिंतन - माँ, अनन्त दुःखमय संसार सागर से पार होने का क्या उपाय है ? माँ- यह जीव अपने चैतन्य स्वरूप को भूलकर तीव्र मोह के कारण दुःख को भोगता है। सच्चा सुख