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प्रश्न १- "जिन उत्तं सद्दहन' का क्या अर्थ है? उत्तर - जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि तीन काल और तीन लोक में शुद्ध निश्चय नय से मैं आत्मा
शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। ऐसा श्रद्धान करो यही 'जिन उत्तं सद्दहनं' का अर्थ है। प्रश्न २- जीव के भाव कितने प्रकार के होते हैं और उनका फल क्या होता है ? उत्तर - जीव के भाव दो प्रकार के होते हैं - शुद्ध भाव और अशुद्ध भाव। इनमें अशुद्ध भाव के दो भेद
हैं - शुभ भाव और अशुभ भाव। इनका फल इस प्रकार है - शुभ भाव और शुभ क्रिया से पुण्य कर्म का बंध होता है, इससे स्वर्गादि सद्गति प्राप्त होती है। अशुभ भाव और अशुभ क्रिया से पाप कर्म का बंध होता है, जो दुर्गति का कारण है। शुद्ध भाव धर्म है इससे पूर्व बद्ध कर्म क्षय
हो जाते हैं। प्रश्न ३- वीतरागता और उसका फल क्या है? उत्तर - मोक्ष का कारण राग-द्वेष मोह से रहित सम भाव अर्थात् वीतरागता है। वीतरागता शुद्धात्मा
के लक्ष्य पूर्वक होती है। वीतरागता पूर्वक होने वाला सम्यक्चारित्र मुक्ति का मार्ग है। वीतरागता
से संवर और निर्जरा होती है। प्रश्न ४- साधक द्वन्दातीत किस प्रकार होता है? उत्तर - साधक का सम्बन्ध ध्रुव स्वभाव के साथ रहता है, प्रति क्षण परिवर्तनशील पर्याय के साथ
नहीं, इसलिये वह समता में रहता है। वह क्रमबद्ध परिणमन पर अटल रहता है अतः अंतरंग में विकल्प नहीं होते। साधक के अंतर में ऐसी समता आना ही द्वन्दातीत होना है।
गाथा-३२ जिन वचनों को स्वीकार करने से मुक्ति गमन जिन दिस्टि उत्त सुद्ध, जिनयति कम्मान तिविह जोएन ।
न्यानं अन्मोय विन्यानं, ममल सरूवं च मुक्ति गमनं च ॥ अन्वयार्थ -(जिन) जिनेन्द्र भगवान (उत्त) कहते हैं कि (सुद्ध) जो ज्ञानी शुद्ध (दिस्टि) दृष्टि सहित हैं वह (तिविह) तीन प्रकार के (जोएन) योग की एकता से (कम्मान) कर्मों को (जिनयति) जीत लेते हैं (च) और (न्यानं) ज्ञान (विन्यानं) विज्ञान मयी (ममल सरूवं) ममल स्वरूप में (अन्मोय) लीन होकर (मुक्ति) मुक्ति को (गमनं च) प्राप्त करते हैं।
अर्थ- परम पद में स्थित श्री जिनेन्द्र परमात्मा का कल्याणकारी दिव्य संदेश है - जो सम्यक्ज्ञानी साधक शुद्ध दृष्टि सहित हैं, आत्मा के श्रद्धान ज्ञान की निर्मलता को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, वे तीन प्रकार के योग की एकता से कर्मों को जीत लेते हैं और ज्ञान विज्ञानमयी ममल स्वभाव में लीन होकर अनन्त सुख स्वरूप अविनाशी मुक्ति को प्राप्त करते हैं। प्रश्न १- मुक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी कौन है ? उत्तर - जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों को स्वीकार कर जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान पूर्वक
अपने ज्ञानानंद स्वभाव का सतत् अनुभव करता है, ऐसा सम्यक्दृष्टि ज्ञान भाव में रहता हुआ कर्मों की निर्जरा कर मुक्ति को प्राप्त करने का अधिकारी होता है।