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________________ अर्थ- चिदानंद स्वभाव का चिंतवन करो । चैतन्य स्वभाव के आनंद में अर्थात् ज्ञायक भाव में आनन्दित रहो। ममल स्वभाव के आश्रय पूर्वक इसी की अनुमोदना करो, ममल स्वभाव में लीन रहो। इस साधना से कर्म मलों की समस्त प्रकृतियाँ क्षय हो जायेंगी। प्रश्न १- चिदानंद चिंतवन का आशय और लाभ लिखिये । उत्तर - अपने आत्म स्वरूप का चिंतन करना, अपने ज्ञानानंद स्वभाव में आनंदित रहना और अपने ममल स्वभाव की साधना करना यही चिदानंद चिंतवनं का आशय है। इससे लाभ यह है कि निर्विकल्प स्वानुभूति में रहने से कर्म मलों की समस्त प्रकृतियाँ क्षय हो जाती हैं। प्रश्न २- श्री जिनेन्द्र परमात्मा ने बंध और मोक्ष के संबंध में क्या उपदेश दिया है ? उत्तर - श्री जिनेन्द्र परमात्मा का उपदेश है कि रागी जीव कर्मों से बंधता है और आत्मस्थ वीतरागी जीव कर्म से छूटता है। मोक्ष पद शुभ क्रियाओं के करने से प्राप्त नहीं होता, वह आत्मज्ञान की कला से ही मिलता है। इसलिये आत्मार्थी जीवों का कर्तव्य है कि वे आत्मज्ञान की कला के बल से मुक्ति का पुरुषार्थ करें। प्रश्न ३- सम्यकदृष्टि ज्ञानी की अंतरंग भावना कैसी होती है? उत्तर - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी की अन्तरंग भावना हर समय अपने स्वरूप में रमण करने की रहती है। वह हमेशा अपने चिदानन्द चैतन्य स्वभाव का चिन्तवन करता है और उसी के आनन्द में आनन्दित रहता है। गाथा - १४ पर पर्याय और शल्यों से छटने का उपाय अप्पा परु पिच्छन्तो, पर पर्जाव सल्य मुक्तान । न्यान सहावं सुद्ध, सुद्धं चरनस्य अन्मोय संजुत्तं ॥ अन्वयार्थ -(अप्पा) आत्मा और (परु) पर पदार्थों को भिन्न-भिन्न (पिच्छन्तो) पहिचानने से (पर पर्जाव) पर पर्यायें और (सल्य) शल्य (मुक्तान) छूट जाती हैं (न्यान सहावं) ज्ञान स्वभाव (सुद्ध) शुद्ध है (अन्मोय) इसकी अनुमोदना पूर्वक (संजुत्त) लीन रहना ही (सुद्धं चरनस्य) शुद्ध सम्यक्चारित्र है। अर्थ-आत्मा और शरीरादि पर पदार्थों को भिन्न-भिन्न पहिचानने से, अनुभव करने से, पर पर्याय और शल्यों का अभाव हो जाता है, रागादि भाव क्षय हो जाते हैं। ज्ञान स्वभाव त्रिकाल शुद्ध है ऐसे महिमामयी स्वभाव की अनुमोदना करते हुए इसी में लीन रहो, स्वभाव में लीन रहना ही सम्यक् चारित्र है। प्रश्न १- क्या सम्यक्चारित्र भी बंध का कारण है? उत्तर - नहीं, सम्यक्चारित्र कदापि बंध का कारण नहीं है। साधक दशा में जीव के चारित्र गुण की पर्याय में दो अंश हो जाते हैं - राग अंश और वीतराग अंश। जितना राग अंश है वह शुभाशुभ भाव रूप होने से बंध का कारण है और जितना वीतराग अंश है वह शुद्ध भाव रूप होने से संवर निर्जरा का कारण है।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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