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________________ प्रश्न २- तिअर्थ का क्या अभिप्राय है, आचार्य श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज के अनुसार स्पष्ट कीजिये? उत्तर - तिअर्थ का आगम और साधना परक अभिप्राय - उवं हियं श्रियं उवंकार हियंकार श्रियंकार शुद्धात्म बोधक केवलज्ञान स्वभाव मोक्षलक्ष्मी उत्पन्न अर्थ हितकार अर्थ सहकार अर्थ शुद्धात्मानुभूति स्व पर का निर्णय स्वरूप लीनता सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र प्रश्न ३- आत्मानुभूति की क्या महिमा है? उत्तर - आत्मानुभूति का प्रकाश होने पर मिथ्यात्व का अंधकार स्वयं दूर हो जाता है। ज्ञान की किरणें प्रकाशित हो जाती हैं। वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध हो जाता है। पर से राग-द्वेष का अभाव, समता भाव की प्रगटता और शुद्ध दृष्टि हो जाती है। गाथा-११ शुद्ध स्वभाव ही देव गुरू धर्म है दर्सन न्यान सुचरन, देवं च परम देव सुद्धं च । गुरं च परम गुरुव, धर्म च परम धर्म सभावं ॥ अन्वयार्थ - (दर्सन) सम्यग्दर्शन (न्यान) सम्यग्ज्ञान (सुचरनं) सम्यक्चारित्र मयी (सुद्धं च) शुद्ध (सभा) स्वभाव (देव) देव (च) और (परम देव) परम देव है (गुरं) गुरू (च) और (परम गुरुर्व) परम गुरू है (धर्म) धर्म (च) और (परम धर्म) परम धर्म है। अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रमयी एक अखंड अविनाशी शुद्धात्म स्वभाव ही निश्चय से देव और परमदेव है, गुरू और परम गुरू है तथा यही धर्म और परम धर्म है। प्रश्न १- शुद्ध निश्चय नय से जीव का सत्स्वरूप क्या है ? उत्तर - जीव का शुद्ध चैतन्य स्वभाव धर्म है, परम धर्म है। अपने अंतरात्मा का जागरण गुरू और परम गुरू है। पूर्ण शुद्ध स्वभावमय हो जाना ही देव और परम देव है। शुद्ध निश्चयनय से जीव का सत्स्वरूप यही है; प्रश्न २- आत्मा स्वयं ही देव गुरू धर्म स्वरूप है फिर संसार में क्यों भटक रहा है? उत्तर - अनादि काल से अपने सत्स्वरूप को भूला हुआ यह जीव अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि बना हुआ संसार में भटक रहा है। प्रश्न ३- आत्मा स्वयं देव गुरू धर्म स्वरूप है ऐसा मानने से क्या लाभ है? उत्तर - निज आत्मा देव गुरू धर्म है, परम पारिणामिक भाव वाला है ऐसा जो स्वीकार करता है वह सम्यकदृष्टि ज्ञानी हो जाता है। वह अपने स्वभाव की महिमा के बल से शुद्ध स्वभाव रूप धर्म
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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