________________
११६
पाठ-३
मुक्ति श्री फूलना चलि चलहु न हो मुक्ति सिरी, तुम्ह न्यान सहाए। कललंकृत हो कम्म न उपजै, ममल सुभाए ॥ जिन जिनवर हो उत्तो स्वामी परम सुभाए ।
मुनि मुनहु न हो भवियनगन तुम्ह अप्प सहाए ॥ १ ॥ अर्थ - [हे भव्य जीवो !] (चलि चलहु न हो मुक्ति सिरी) चलो, मुक्ति श्री चलो (तुम्ह) तुम्हारे (न्यान सहाए) ज्ञान स्वभाव में ही मुक्ति है (ममल सुभाए) ममल स्वभाव में रहने से (कललंकृत हो) शरीर को प्राप्त कराने वाले (कम्म) कर्म (न उपजै) उत्पन्न नहीं होते (जिनवर हो उत्तो स्वामी) जिनवर स्वामी ने कहा है कि तुम (परम) उत्कृष्ट (जिन) वीतराग (सुभाए) स्वभाव के धारी हो (भवियनगन) हे भव्यजनों ! (तुम्ह) तुमने अभी तक (अप्प सहाए) अपने आत्म स्वभाव का (मुनि मुनहु न हो) चिंतन मनन नहीं किया है [अब आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन करो और मुक्ति श्री चलो
तुम्हरी अषय रमन रै नारी, हो न्यानी भव भवर विनट्ठी। __ मन हरषिय लो जिन तारन को, जब सब मुक्ति पहुंते हो न्यानी॥२॥
अर्थ - (न्यानी) हे ज्ञानी ! (अषय रमन) अक्षय स्वरूप में रमण करने रूप (तुम्हरी) तुम्हारी (रै नारी हो) शुद्धोपयोगमयी परिणति (भव भंवर) संसार रूपी भंवर को (विनट्टी) विनष्ट करने वाल (मन हरषिय लो जिन तारन को) जिन तारण [स्वामी] का मन तब हर्षित होगा (जब सब मुक्ति पहुंते हो न्यानी) जब सब जीव ज्ञानी होकर मुक्ति श्री को प्राप्त करेंगे।
सो मुनियो हो उत्तउ जिनु हो ममल सुभाए। धरि धरियो हो अर्थ तिअर्थह न्यान सहाए । कलि कलियो हो ममल दिष्टि यहु कमल सुभाए।
रै रमियो हो पंच दिप्ति यहु आद सहाए ॥ ३ ॥ अर्थ-(जिनु उत्तउ हो) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि तुम (ममल सुभाए) ममल स्वभावी हो, (सो मुनियो हो) इसी स्वभाव का मनन करो (न्यान सहाए) ज्ञान स्वभाव के [आश्रय से] (अर्थ तिअर्थह) प्रयोजनीय रत्नत्रय को (धरि धरियो हो) धारण करो [अपनी आत्मा का] (यहु कमल सुभाए) यह ज्ञायक स्वभाव ही (ममल) ममल स्वभाव है (दिष्टि) इसी पर दृष्टि रखने से [आत्म स्वभाव की] (कलि कलियो हो) कली- कली खिल जाती है। हे आत्मन् ! कमल की तरह सदैव ज्ञायक रहो] (यह आद सहाए) यह आत्म स्वभाव (पंच दिप्ति) पंचम दीप्ति [ केवलज्ञान स्वरूप है (रै रमियो हो) इसी में रमण करो।
उदि उदियो हो इस्ट संजोगे परम सुभाए । दिपि दिपियो हो पर्म ज्योति यहु अप्प सहाए॥ लहिलहियो हो अंगदि अंगह सुद्ध सुभाए।
मैं' मइयो हो अंग सर्वगह ममल सुभाए ॥ ४ ॥ अर्थ-(इस्ट संजोगे) अपने इष्ट का संयोग करके (परम सुभाए) परम स्वभाव का (उदि उदियो