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करना, पश्चात् तीन आवर्त अर्थात् हाथ जोड़ कर प्रदक्षिणा करना और एक शिरोनति अर्थात् हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर नमन करना। इस प्रकार चारों दिशाओं में नमन करके खड्गासन या पद्मासन धारण करके सामायिक करना चाहिये और जब सामायिक पूर्ण हो जाये तब अन्त भी प्रारम्भ की तरह नौ बार नमस्कार मंत्र का जाप तीन - तीन आवर्त व एक - एक शिरोनति करना चाहिये । यही सामायिक करने की स्थूल विधि है। सामायिक करते समय
सामायिक काल में श्रावक भी मुनि के समान ही है। प्रश्न - प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत किसे कहते हैं ? उत्तर - विषय - कषाय और आहार का त्याग कर आत्म स्वभाव के समीप ठहरना उपवास है। प्रत्येक
अष्टमी व चतुर्दशी को समस्त आरम्भ छोड़कर उपवास करना प्रोषधोपवास है। यह तीन प्रकार से किया जाता है। १. उत्तम - सप्तमी के दिन दोपहर को १२ बजे उपवास धारण किया और नवमी के दिन दोपहर को बारह बजे पारणा किया, इस तरह १६ पहर हुए यह उत्तम उपवास है। २.मध्यम- सप्तमी के दिन संध्या समय ५ बजे उपवास धारण किया और नवमी के दिन प्रातः ७ बजे पारणा किया यह १२ पहर का मध्यम उपवास है। ३. जघन्य - अष्टमी के दिन प्रातः ७ बजे उपवास धारण किया और नवमी के दिन प्रातः ७ बजे पारणा किया यह ८ पहर का
जघन्य उपवास है। प्रश्न - भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत किसे कहते हैं ? उत्तर - प्रयोजनभूत सीमित परिग्रह के भीतर भी कषाय कम करके भोग और उपभोग का परिमाण
घटाना भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत है। भोग - जो पदार्थ एक बार भोगने में आवे उसे भोग कहते हैं। जैसे - भोजन, जल,आदि। उपभोग - एक ही पदार्थ जो बार - बार भोगने में आवे
उसे उपभोग कहते हैं। जैसे - वस्त्र, सवारी, पलंग आदि। प्रश्न - अतिथि संविभाग शिक्षाक्त किसे कहते हैं? उत्तर - मुनि, व्रती श्रावक, अव्रती श्रावक इन तीन प्रकार के पात्रों को अपने भोजन में से विधिपूर्वक
दान देना अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत है। प्रश्न - सामायिक प्रतिमा किसे कहते हैं? उत्तर - समस्त इष्ट - अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष भावों के त्यागपूर्वक समता भाव का अवलम्बन करके
तीनों काल में सामायिक करते हुए किसी भी प्रकार का उपसर्ग और परीषह आने पर साम्यभाव से नहीं डिगना अर्थात् समतामय परिणामों में रहना सामायिक प्रतिमा है।
सार सिद्धांत - त्रिकाली निज भगवान आत्मा में संलग्न रहना सामायिक प्रतिमा है। प्रश्न - प्रोषधोपवास प्रतिमा किसे कहते हैं ? उत्तर - प्रोषध का अर्थ है - पर्व और उपवास का अर्थ है -निकट वास करना। पर्व के दिनों में पापों को
छोड़कर धर्म में वास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं। शाश्वत पर्व अष्टमी और चतुर्दशी के पहले और पश्चात् के दिनों में एकासन पूर्वक अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास रखकर एकान्तवास में रहकर, सम्पूर्ण सावद्ययोग को छोड़कर एवं सर्व इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर धर्म ध्यान में संलग्न रहना प्रोषधोपवास प्रतिमा है।