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श्री मालारोहण जी
चिच्छक्ति व्याप्त सर्वस्वसारो जीव इयानयम् ।
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावः पौदगलिका अमी॥ चैतन्य रूप जो शक्ति उससे ही व्याप्त है संपूर्ण निज सार जिसका, ऐसा इतना मात्र तो जीव है तथा इस चैतन्य स्वरूप जीव से भिन्न संपूर्ण भाव वे पुद्गल स्वरूप हैं।
(श्री अमृतचन्द्राचार्य, अध्यात्म अमृत कलश-३५) एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्र गोचरः ।
बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥ मैं एक, ममतारहित, शुद्ध, ज्ञानी योगीन्द्रों के द्वारा जानने योग्य हूँ , संयोग जन्य जितने भी पदार्थ और भाव हैं वे मुझसे सर्वथा भिन्न हैं।
(श्री पूज्यपाद स्वामी, इष्टोपदेश गाथा - २७) लोक मात्र प्रमाणोऽयं निश्चयेन न हि संशयः।
व्यवहारे तनुमात्र: कथित: परमेश्वरैः ॥ जिनेन्द्र भगवान ने आत्मा को व्यवहार से शरीर प्रमाण और निश्चय से लोक प्रमाण कहा है इसमें संशय नहीं है।
(श्री परमानंद स्तोत्र श्लोक - १४) अन्य: सचेतनो जीवो वपुरन्यदचेतनम् ।
हा तथापि न मन्यन्ते नानात्वमनयोजनः ॥ सचेतन जीव भिन्न है और अचेतन शरीर भिन्न है, खेद है कि फिर भी लोग इन दोनों के भेद को नहीं मानते।
(श्री अमृतचन्द्राचार्य, तत्त्वार्थसार गाथा-६/३५) प्रश्न ७- 'भावे अनेत्वं जे न्यान रूप' से संबंधित जैनाचार्यों की क्या देशना है? उत्तर -
सक्खमओ अहमेक्को, सुद्धप्पा णाण दसण समग्गो।
अण्णे जे परभावा, ते सव्वे कम्मणा जणिया ॥ मैं एक हूँ , सुख स्वरूप हूँ ,शुद्धात्मा ज्ञान दर्शन से समग्र (परिपूर्ण) हूँ , अन्य जो परभाव हैं वे सब कर्मोदय जनित हैं।
(श्री देवसेनाचार्य, आराधनासार गाथा - १०३) अहमेक्को खलु सुद्धो, दसण णाण मइयोसदा रूवी ।
णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तंपि॥ रत्नत्रय परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञान मय हूँ, सदा अरूपी हूँ, किंचित् मात्र भी अन्य पर द्रव्य परमाणुमात्र मेरा नहीं है।
(श्री कुंदकुंदाचार्य, समयसार गाथा -३८) सद् द्रव्यमस्मि चिदह, ज्ञाता दृष्टा सदप्युदासीनः ।
स्वोपात्तदेह मात्रस्ततः पृथग्गगनवदमूर्तः ॥ मैं सत् द्रव्य हूं, चैतन्य स्वरूप हूं, ज्ञाता दृष्टा सदा ही उदासीन हूं, जो शरीर प्राप्त होता है उतना ही मेरा प्रमाण हैं, किंतु मैं उससे भिन्न हूं, आकाश के समान अमूर्त हूं।
(श्री समन्तभद्राचार्य, तत्वानुशासन गाथा - १५३)