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जिनवाणी का सार
जड़ चेतन दोनों हैं न्यारे, यह जिनवर संदेश है। तन में रहता भी निज आतम, ज्ञान मयी परमेश है ॥ तत्त्व सार तो इतना ही है, अन्य कथन विस्तार है। स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ॥ ८ ॥ मिथ्या बुद्धि का तम हरने, ज्ञान रवि हो सरस्वती । सम्यज्ञान करा दो मुझको, सुन लो अब मेरी विनती॥ अनेकान्त का सार समझ कर, हो जाऊँ भव पार है। स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ॥ ९ ॥ स्याद्वाद की गंगा से, कुज्ञान मैल धुल जाता है । ज्ञानी सम्यक् मति श्रुत बल से, केवल रवि प्रगटाता है। आत्म ज्ञान ही उपादेय है, बाकी जगत असार है। स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ||१०|| भव दु:ख से भयभीत भविक जन, शरण तिहारी आते हैं। स्वयं ज्ञान मय होकर वे, भव सिन्धु से तर जाते हैं | आत्म ज्ञान मय जिन वचनों की, महिमा अपरम्पार है। स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ||११||
जयमाल वीतराग जिन प्रभु का, यह सन्देश महान । चिदानन्द चैतन्य तुम, शाश्वत सिद्ध समान || १ || द्वादशांग मय जिन वचन, श्रुत महान विस्तार | जीव जुदा पुदगल जुदा, जिनवाणी का सार |॥ २ ॥ करो सुबुद्धि जागरण, सम्यक् मति श्रुत ज्ञान | निश्चय जिनवाणी कही, तारण तरण महान || ३ ।। जिनवाणी की वन्दना, करूं त्रियोग सम्हार | ब्रह्मानंद में लीन हो, हो जाऊं भव पार || ४ ।। करो साधना ध्रौव्य की, बढ़े ज्ञान से ज्ञान । ज्ञान मयी पूजा यही, पाओ पद निर्वाण ।। ५ ।।