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गुरु स्तुति
जग मांहि जितने भी कुगुरु, सब उपल नाव समान हैं। भव सिंधु में डूबें डुबायें, जिन्हें भ्रम कुज्ञान है । पर भावलिंगी सन्त करते, ज्ञान मय नित जागरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥ ९ ॥ निस्पृह अकिंचन नित रहें, वे हैं सुगुरु व्यवहार से । है अन्तरात्मा सद्गुरू, परमार्थ के निरधार से || निज अन्तरात्मा है सदा, चैतन्य ज्योति निरावरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ||१०|| निज अन्तरात्मा को जगालो, भेदज्ञान विधान से । भय भ्रम सभी मिट जायेंगे, सदगुरू सम्यग्ज्ञान से | वह करे ब्रह्मानन्द मय, मिट जायेगा आवागमन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥११॥
जयमाल
चेतन अरू पर द्रव्य का, है अनादि संयोग । सद्गुरू के परिचय बिना, मिटे न भव का रोग ॥ १ ॥ आतम अनुभव के बिना, यह बहिरातम जीव । सद्गुरू से होकर विमुख, जग में फिरे सदीव ॥ २ ॥ भेद ज्ञान कर जान लो, निज शुद्धातम रूप । पर पुदगल से भिन्न मैं, अविनाशी चिद्रप || ३ || गुरू ज्ञान दीपक दिया, हुआ स्वयं का ज्ञान । चिदानन्द मय आत्मा, मैं हूँ सिद्ध समान ।। ४ ।। ज्ञाता रहना ज्ञान मय, यही समय का सार । सदगुरू की यह देशना, करती भव से पार || ५ ॥
अभ्यास के प्रश्न प्रश्न १ - सत्य/असत्य कथन चुनिये
(क) रागादि रिपुओं पर विजय पा कर दिये सबको शमन । (ख) निर्ग्रन्थ तन इसलिये दिखता, है सदा सग्रन्थ मन । (ग) कुगुरु की संगति से जीव भव-भव में महा दु:ख पाता है। (घ) निज अंतरात्मा को भेदविज्ञान विधान से जाना जाता है। (ङ) निस्पृह अकिंचन नित रहें वे हैं सुगुरु व्यवहार से।
है अंतरात्मा सद्गुरु स्वार्थ के निरधार से ॥
(सत्य) (असत्य) (सत्य) (सत्य)
(असत्य)