SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला - तीसरी ढाल (ख) - तीसरी ढाल का सारांश लिखिये। उत्तर - आत्मा का हित सुख प्राप्त करने में है। आकुलता का मिट जाना सच्चा सुख है। मोक्ष सुख स्वरूप है। इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना चाहिये। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तीनों की एकता मोक्षमार्ग है, उसका कथन दो प्रकार से किया गया है। निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तो वास्तव में मोक्षमार्ग है, और व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र वह मोक्षमार्ग नहीं है अपितु बंधमार्ग है लेकिन निश्चयमोक्षमार्ग में सहकारी होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। आत्मा की परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है और परद्रव्यों का आलंबन छोड़कर आत्मस्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। सात तत्त्वों का यथावत् भेदरूप अटल श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है। यद्यपि सात तत्त्वों के भेद की अटल श्रद्धा शुभराग होने से वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु निचली दशा में अर्थात् चौथे,पांचवें और छटवेंगुणस्थान में निश्चय सम्यक्त्व के साथ सहचर होने से वह व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है। आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष यह सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं। निःशंकितादि सम्यक्त्व के आठ अंग (गुण) हैं। उन्हें भलीभाँति जानकर दोषों का त्याग तथा गुणों को ग्रहण करना चाहिये। जो विवेकवान जीव निश्चय सम्यक्त्व को धारण करता है, उसे जब तक निर्बलता है तब तक पुरुषार्थ की मंदता के कारण यद्यपि किंचित् संयम नहीं होता तथापि वह इन्द्रादि के द्वारा पूजा जाता है। तीन लोक और तीन काल में निश्चय सम्यक्त्व के समान कोई भी अन्य वस्तु सुखकारी नहीं है। सब धर्मों का मूल, सार तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी यह सम्यक्त्व ही है। उसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते इसलिये मिथ्या कहलाते हैं। आयु का बंध होने से पूर्व सम्यक्त्व धारण करने वाला जीव मृत्यु के पश्चात् दूसरे भव में नारकी, ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीन अंग, नीच गोत्रवाला, अल्पायु तथा दरिद्री नहीं होता। सम्यक्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंच मरकर वैमानिक देव होते हैं। देव और नारकी सम्यक्दृष्टि मरकर कर्मभूमि में उत्तम क्षेत्र में मनुष्य ही होता है। यदि सम्यग्दर्शन होने से पूर्व - १. देव, २. मनुष्य, ३. तिर्यंच या ४. नरकायु का बंध हो गया हो तो वह मरकर - १. वैमानिक देव २. भोगभूमि का मनुष्य ३. भोगभूमि का तिर्यंच अथवा ४.प्रथम नरक का नारकी होता है। इससे अधिक नीचे के स्थान में जन्म नहीं होता। इस प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की अपार महिमा है। इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को सत्शास्त्रों का स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्वविचार द्वारा निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि यदि इस मनुष्य भव में निश्चय सम्यक्त्व प्रगट नहीं किया तो पुनः मनुष्य पर्याय आदि सुयोग का मिलना कठिन है।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy