SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला - दूसरी ढाल अजीव और आस्रवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन ॥ ५॥ अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (तन) शरीर के (उपजत) उत्पन्न होने से (अपनी) अपना आत्मा (उपज) उत्पन्न हुआ (जान) ऐसा मानता है [और] (तन) शरीर के (नशत) नाश होने से (आपको) आत्मा का (नाश) मरण हुआ ऐसा (मान) मानता है। (रागादि) राग, द्वेष, मोहादि (ये) जो (प्रगट) स्पष्ट रूप से (दुःख दैन) दुःख देने वाले हैं (तिनही को) उनका ही (सेवत) सेवन करता हुआ (चैन)सुख (गिनत) मानता है। बन्ध और संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा शुभ अशुभ बंध के फल मंझार, रति-अरति करै निजपद विसार । आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्ट दान ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ :- [मिथ्यादष्टि जीवा (निजपद) आत्मा के स्वरूप को (विसार) भूलकर (बंध के) कर्म बंध के (शुभ) अच्छे (फल मंझार) फल में (रति) प्रेम (करै) करता है [और कर्म बंध के] (अशुभ) बुरे फल से (अरति) द्वेष करता है [तथा जो] (विराग) राग-द्वेष का अभाव [अर्थात् अपने यथार्थ स्वभाव में स्थिरता रूप सम्यक्चारित्र और] (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान [और सम्यग्दर्शन] (आतमहित) आत्मा के हित के (हेतु) कारण हैं (ते) उन्हें (आपको) आत्मा को (कष्टदान) दुःख देने वाले (लखै) मानता है। निर्जरा और मोक्ष की विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान रोके न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।। याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ॥ ७॥ अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (निज शक्ति) अपनी आत्म शक्ति को (खोय) भूलकर (चाह) इच्छा को (न रोके) नहीं रोकता और (निराकुलता) आकुलता के अभाव को (शिव रूप) मोक्ष का स्वरूप (न जोय) नहीं मानता (याही) इस (प्रतीतिजुत) मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह (दुखदायक) कष्ट देने वाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्या ज्ञान है [ऐसा] (जान) समझना चाहिये। अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र) का लक्षण इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त । यो मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत, सुनिये स तेह ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ :-(जो) जो (विषयनि में) पाँच इन्द्रियों के विषयों में (इन जुत) अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करता है (ताको) उसे (मिथ्याचरित्त) अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समझो (यों) इस प्रकार (निसर्ग जेह) यह अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का वर्णन किया] (अब) अब (जे) जो (गृहीत) गृहीत [मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र] है (सु तेह) उसे (सुनिये) सुनो।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy