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छहढाला - पहली ढाल
पहली ढाल - मंगलाचरण
(सोरठा) तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता ।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिक ॥ १॥ अन्वयार्थ :- (वीतराग) राग-द्वेष रहित (विज्ञानता) केवलज्ञान (तीन भुवन में) तीन लोक में (सार) उत्तम वस्तु (शिवस्वरूप) आनन्दस्वरूप [और] (शिवकार) मोक्ष प्राप्त कराने वाला है, उसे मैं (त्रियोग) तीन योग से (सम्हारिक) सावधानी पूर्वक (नम) नमस्कार करता हूँ।
__ ग्रन्थ रचना का उद्देश्य और जीवों की इच्छा जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहे दुखतें भयवन्त ।
तातें दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ॥ २ ॥ अन्वयार्थ :- (त्रिभुवन में) तीनों लोक में (जे) जो (अनन्त) अनन्त (जीव) प्राणी [हैं वे] (सुख) सुख की (चाहै) इच्छा करते हैं और (दुखते) दुःख से (भयवन्त) डरते हैं (तातें) इसलिये (गुरु) आचार्य (करुणा) दया (धार) करके (दुःखहारी) दुःख का नाश करने वाली और (सुखकार) सुख को देने वाली (सीख) शिक्षा (कहै) कहते हैं।
गुरु की शिक्षा सुनने की प्रेरणा तथा संसार-परिभ्रमण का कारण ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान ।
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ :- (भवि) हे भव्य जीवो ! (जो) यदि (अपनो) अपना (कल्यान) हित (चाहो) चाहते हो तो] (ताहि) गुरु की वह शिक्षा (मन) मन को (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो) सुनो [कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी] (अनादि) अनादि काल से (मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पियो) पीकर (आपको) अपने आत्मा को (भूल) भूलकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा है।
ग्रन्थ की प्रामाणिकता और निगोद का दुःख तास भ्रमन की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा ।
काल अनन्त निगोद मझार, वीत्यो एकेन्द्री तन धार ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ :- (तास) उस संसार में (भ्रमन की) भटकने की (कथा) कथा (बहु) बड़ी (है) है (पै) तथापि (यथा) जैसी (मुनि) पूर्वाचार्यों ने (कही) कही है [तदनुसार मैं भी] (कछु) थोड़ी सी (कहूँ) कहता हूँ कि इस जीव का] (निगोद मैंझार) निगोद में (एकेन्द्री) एकेन्द्रिय जीव के (तन) शरीर (धार) धारण करके (अनन्त) अनन्त (काल) काल (वीत्यो) व्यतीत हुआ है।
निगोद का दुःख और वहाँ से निकलकर प्राप्त की हुई पर्यायें एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दुखभार । निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो ॥ ५॥