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श्री ज्यान समुच्चय सार जी पंचाचार वियानदि, परिनय सुद्ध भाव संमत्तं । जिन वयनं सद्दहनं, सद्दहनं सुद्ध ममल संमत्तं ॥ ६७५ ॥ रागादि दोस विरयं, असुद्ध परिनाम भाव विरयंतो । विरह पमाइ सव्वं, विरयं संसार सरनि मोहंधं ॥ ६७६ ॥ मिच्छात समय मिच्छा, समय प्रकृति मिच्छ सभावं । कषायं अनंतानं, तिक्तंति प्रकृति सप्त सभावं ॥ ६७७ ।। जिन वयनं सद्दहनं, सद्दहै अप्प सुद्ध सभावं । मति न्यान रूव जुत्तं, अप्पा परमप्प सद्दहै सुद्धं ॥ ६७८ ।। आरति रौद्रं च विरयं, धम्म ध्यानं च सद्दहै सुद्धं । अविरय सम्माइट्ठी, अविरत गुनठान अव्रितं सुद्धं ॥ ६७९ ॥ देस ब्रिति संजुत्तं, एको उद्देस वय गहई सुद्धं ।
अविरय गुन संजुत्तं, सुत न्यानं च भाव उववनं ॥ ६८० ॥ दंसन वय सामाई, पोसह सचित्त रायभत्तीए । बंभारंभ परिग्गह, अनुमनु उद्दिस्ट देस विरदोय ॥ ६८१ ॥ पंच अनुव्वयाई, व्रत तप क्रियं च सुद्ध सभावं ।। न्यान सहावदि सुद्धं, सुद्धं च अप्प परम पद विंदं ॥ ६८२ ॥ अप्पा अप्प सरूवं, विरइ मिच्छात दोस संकाई । अवयास सुद्ध धरनं, मनरोहो निय अप्पानं ॥ ६८३ ॥ मन वयन काय सुद्धं, उक्तं सभाव निस्च जिनवयनं । दत्तं पत्त विसेषं, एको उद्देस देसव्रत ग्रहनं ॥ ६८४ ।। अविरय भाव संजुत्तं, अनुवय भाव सुद्ध संधरनं । धम्मं झानं झायदि, मति सुत न्यान संजुदो सुद्धो ॥ ६८५ ॥
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी अवहि उवन्नो भावो, वय गहनं भाव संजदो सुद्धो । वैरागं संसार सरीरं, भोगं तिजंति भोग उवभोगं ॥ ६८६ ।। संमत्त सुद्ध चरनं, अवहिं चिंतेड़ सुद्ध ससरूवं । अप्पा परमप्पानं, परमप्पा निम्मलं सुद्धं ॥ ६८७ ।। ग्रंथं बाहिर भिंतर, मुक्कं संसार सरनि सभावं । महावयं गुन धरनं, मूलगुनं धरंति सुद्ध भावेन ॥ ६८८ ।। दंसन दह विहि भेयं, न्यानं पंच भेय उवएसं । तेरह विहस्य चरनं, न्यान सहावेन महावयं हुंति ॥ ६८९ ।। ध्यानं च धम्म सुक्कं, आरति रौद्रं न दिस्टि दिस्टंतो। अप्पा परमप्पानं, न्यान सहावेन महावयं हुंति ॥ ६९० ॥ अप्रमत्त अप्रमानं, धर्म सुक्कं च झान निम्मलं सुद्धं । अवहि रिधि संजुत्तो, घिउ उवसम भाव संसुद्धं ॥ ६९१ ।। विक्त रूव स दिट्ठी, विगतं संसार सरनि भावं च । सुद्धं परमानंद, न्यान सहावेन सुद्ध तवयरनं ॥ ६९२ ।। अपूर्व करण अपूर्वं, अवधिं संजुत्त निम्मलं सुद्धं । न्यान सहावं नित्यं, अप्पा परमप्प भाव संजुत्तं ।। ६९३ ।। अनिवरतं ससहावं, सुद्ध सहावं च निम्मलं भावं । षिउ उवसमं सदर्थं, न्यान सहावेन अनिवर्तयं सुद्धं ॥ ६९४ ।। सूष्यम भेय संजुत्तं, घिउ उवसम भाव संजदो सुद्धो । निम्मल सुद्ध सहावं, अप्पा परमप्प निम्मलं सुद्धं ॥ ६९५ ।। घाय चवक्कय विरयं, नंत चतुस्टय भावना सुद्धं । कम्म मल पयडि तिक्तं, न्यान सहावेन सूष्यम परमं ॥ ६९६ ॥