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________________ भूमिका ही पुरुषार्थी बनेगा, समय पाय भवाटवी से निकल जायेगा। ४. श्री श्रावकाचार जी- इस ग्रन्थ में नाना जीवों की अपेक्षा कथन है। इसमें आस्तिकपने की सिद्धि के उपायों का ज्ञान कराया गया है। आस्तिक ही सच्चा श्रावक होता है। श्रावक को पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत निर्विघ्न निरतिचार पूर्वक पालने की क्रिया बतलाई है तथा उन मिथ्या क्रियाओं के जिनके करने पर जीव का पतन होता है जो एक नास्तिक का कर्तव्य है, उसे त्याग देना पड़ता है। इस संमिक्त क्रिया के करने को तत्पर जीव अंत में जीवन सफल बनाने को समाधि तक धारण कर लेता है, इससे ही उसका कल्याण है। इस ग्रंथ में ४६२ गाथायें हैं। अव्रत सम्यक्रष्टि के लिये यह ग्रंथ कहा गया है, इसमें बैराग्य भाव जगाने के लिये संसार,शरीर,भोगों का स्वरूप बताकर जीव के अनादिकालीन संसार में भ्रमण का कारण तथा अव्रत सम्यक्दृष्टि श्रावक और व्रती श्रावक के आचार का कथन किया है। साम्बाम मयंपूर्व 'आदि कहकर श्रावक की विशेषता दर्शाई है। श्रावक दशा के आगे साधुपद का भी स्वरूप इस ग्रंथ में बताया गया है,निश्चय - व्यवहार के समन्वय पूर्वक श्रावकचर्या का दिग्दर्शन करानेवाला यह विशेष ग्रंथ है। ५. श्री न्यानसमुच्चयसार जी - इस ग्रंथ में ९०८ गाथायें हैं। ग्रंथ के नाम के अनुसार द्वादशांग वाणी रूप ज्ञान के समुच्चय का सारभूत कथन, ११ अंग, १४ पूर्व का वर्णन, ज्ञानी की महिमा, साधुपद का विशद् विवेचन, सत्ताईस तत्त्व, १४ गुणस्थान, पंचाचार आदि सभी अध्यात्म और आगम के सैद्धान्तिक विषयों का गहन गंभीर वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण जिनवाणी (ज्ञान के समुच्चय) का सार क्या है ? यह भी बहुत सुगमता से इस ग्रंथ में बताया श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी संबंधित यह अपूर्व ग्रंथ है | साधना मार्ग में आने वाले बाधक कारण कौन-कौन से हैं, उनका निराकरण कैसे होता है ? कर्म के उदय निमित्त से होने वाले रागादि भावों से एवं कर्मों से छूटने का उपाय, चिदानंद चैतन्य स्वभाव की महिमा, सिध्दि मुक्ति को प्राप्त करने की विधि तथा जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का शुध्द सार क्या है ? ऐसे अनेक रहस्यों का इस ग्रंथ में विशेष रूप से वर्णन किया गया है। आत्मा को आत्मा या परमात्मस्वरूप समझना ही उपादेय है ऐसी दृष्टि सहित इसमें सुदेव, कुदेव, सुगुरू, कुगुरू, जिनस्वरूप, प्रणवमंत्र, निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्रचारित्र आदि अनेकों आध्यात्मिक रहस्यों का कथन किया गया है। ७.श्री त्रिभंगीसार जी- इस ग्रंथ में २ अध्याय हैं और ७१ गाथायें हैं। तीन-तीन भंग के द्वारा जिन भावों से कर्मों का आश्रव होता है, ऐसे कर्माश्रव के कारण भूत १०८ प्रकार के परिणामों का वर्णन प्रथम अध्याय में किया है तथा जिन भावों से आश्रव का निरोध होता है, ऐसे संवर रूप परिणामों का विवेचन दूसरे अध्याय में किया गया है। विशेष रूप से शुभाशुभ भावों से दूर होकर अपने शुध्द सच्चिदानंद स्वरूप का ध्यान धारण करने की प्रेरणा दी गई है। ग्रंथ के प्रारंभ में बताया है कि आयु के त्रिभाग में जीव के लेश्या रूप परिणामों के अनुसार आयु का बंध होता है इसलिये निरंतर अपने परिणामों की सम्हाल करना चाहिये। ८. श्री चौबीस ठाणा जी - इस ग्रंथ में सत्ताईस गाथायें तथा ५ अध्याय गद्यमय हैं। अज्ञान मोहवश संसार में जन्म-मरण के चक्र में फंसा हुआ जीव किसी न किसी स्थान में अवश्य पाया जाता है, वे स्थान चौबीस हैं, जिनका इस ग्रंथ में वर्णन किया गया है । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेझ्या, भव्य, सम्यक्त्व, संझी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आश्रव, जाति और कुलकोडि इन चौबीस स्थानों का वर्णन करते हुए बताया है कि अपने स्वरूप को भूलने से जीव की क्या दशा होती है ? इस संसार का स्वरूप क्या है ? तथा इससे छूटने का उपाय क्या है इत्यादि अनेक रहस्य स्पष्ट किये गये हैं। ९. श्री ममल पाहुड जी - इस ग्रंथ में ३२०० गाथायें हैं। चौदह ग्रंथों में यह सबसे बड़ा और अनेक आध्यात्मिक रहस्यों से भरा हुआ ग्रंथ है। अपने उपयोग को अपने ममल स्वभाव में लगाने की साधना और परमानंद मय रहना इस ग्रंथ का मूल अभिप्राय है । १६४ फूलनाओं में श्री गुरू महाराज ने आगम और अध्यात्म के विशेष अनुभव का रस उड़ेल दिया है। लोग कहते हैं परमानंद पद की प्राप्ति में सहायक एक ज्ञान ही है। उस ज्ञान की प्राप्ति के लिये आर्त रौद्र ध्यान को त्याग कर, धर्म शुक्ल ध्यान का अभ्यास और जिनवाणी का स्वाध्याय आवश्यक है, जिससे सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो सके | इसकी पूर्ति हेतु ११ अंग, १४ पूर्व का पठन पाठन मनन करना चाहिये । सारांश यह है कि बिना ज्ञान के कोई भी क्रिया सफल नहीं हो सकती । सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र होता है, यह रत्नत्रय की एकता ही मोक्ष का मार्ग ६. श्री उपदेश शुद्ध सार जी- इस ग्रंथ में ५८९ गाथायें हैं। साधक की साधना से
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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