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भूमिका सम्यकदर्शन क्या है ? सम्यक्दृष्टि कैसा होता है ? सच्चा पुरुषार्थ किसे कहते हैं ? मुक्ति को प्राप्त करने का मार्ग क्या है ? इन सभी प्रश्नों के समाधान और सम्यकदर्शन की महिमा बताई है। समवशरण में राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर से ज्ञान गुण माला प्राप्त करने का उपाय पूछा था । कल्याण मार्ग में स्थित करने वाला वह प्रसंग भी बहुत सुंदरता से प्रतिपादित किया गया है। इस ओंकार गुणमाला में आत्मब्रह्म के एकसौ आठ गुणों की माला का वर्णन है।
२. श्री पंडित पूजा जी - यह ग्रन्थ आत्म आस्तिक्यादि का दिग्दर्शन कराता है और अपने कर्तव्य योग्य इस मानव जीवन को सफल बनाने के लिये षट्कर्मों का उपदेश देता है। जिसमें आत्म देव का दर्शन, निर्गन्ध गुरू की सेवा, जिनवाणी का स्वाध्याय, मनन, अनुभवन, इंद्रिय संयम, आत्मज्ञान की प्राप्ति, सुख प्राप्ति हेतु कर्म दाहक क्रियायें निहित हैं, जिन क्रियाओं से साधक साध्य को सिद्ध कर तत्स्वरूप को प्राप्त कर सकता है।
सम्यकुदृष्टि ही आस्तिक है; कारण कि उसे आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान भले प्रकार विदित है । जो अपने पूर्णत्व की शरण लेकर पूर्णत्व प्राप्त करने की जिज्ञासा रखता है उसके कोई अभाव नहीं है, वह ज्ञानी उत्पत्ति. विनाश जडता के दोष से रहित है. चिंता और भय से मुक्त है, शाश्वत अविनाशी सत्य का अनुभवी होता है, अखंड आनंद और शांति का अनुभवी साधक आत्मा की पवित्र दशा का उपासक अन्तर्मुखी बुद्धि से सत्यदर्शी हो जाता है, आत्मशांति और चेतना की गहराई का अनुभवी है, उसका संबंध वर्तमान से होता है।
आस्तिक में बुद्धि और दृष्टि की प्रधानता होती है तब ही वह गुणस्थान और मार्गणा से अपनी उन्नति करता है, दोषों का त्यागी और गुणों का प्रेमी आस्तिक ही होता है। आत्मानुभव का रसिक होता है, त्याग और ज्ञान के द्वारा पूर्ण योग ही उसके जीवन की पूर्णता है, निर्दोष जीवन के कारण प्रत्येक परिस्थिति में स्वस्थ व शांत रहता है। सेवा, सदाचार, इंद्रिय दमन, समता, दान सहित होते हुए भी निरपेक्षता, निर्मोहता, आत्म निर्भरता, निस्पृहता, निष्कामवृत्ति, बैर रहित पना आदि दैवी गुणों की विशेषता आस्तिक में ही होती है।
सच्चा आस्तिक ही पूर्ण ज्ञानी और असत्य से विरक्त होता है। आस्तिक संयोग की दासता त्याग कर वियोग का अंत योग में देखता है। आस्तिक सत्य का ज्ञान प्राप्त कर दुःख का अंत नित्य में देखता है और नित्य जीवन को जानकर मृत्यु का अंत मुक्ति में देखता है और नास्तिक की दशा इसके विपरीत ही होती है।
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी इस ग्रंथ में ३२ गाथायें हैं। सम्बज्ञान इस ग्रंथ का प्रमुख विषय है। ज्ञानी कौन होता है? ज्ञानी कैसा होता है ? पण्डित सच्चे देव, गुरू, शास्त्र की किस प्रकार पूजा करता है ? यह बताकर आध्यात्मिक पूजा का स्वरूप और उसका फल बताया है। ज्ञानी की विशेषता, आत्म ज्ञान की महिमा तथा निश्चय - व्यवहार से समन्वित शाश्वत मुक्ति मार्ग का कथन आदि सभी वर्णन विशेष रूप से इस ग्रंथ में किया गया है।
३.श्री कमल बत्तीसी जी - इस ग्रन्ध में यह बताया गया है कि जिनवाणी के स्वाध्याय द्वारा आत्मा परमात्म शक्ति में एकाकार होकर पुरुषार्थ के मार्ग पर चलकर उन्नति को पाता है, तत्त्व स्वरूप में मिल जाता है । वर्तमान में अपनी संभाल करता है और निरन्तर आत्म निरीक्षण में संलग्न रहता है, इसके बिना भविष्य का सुधार होता ही नहीं है। यह आस्तिक्यता की पूर्ति का अमोघ उपाय है, इसके बिना जीवन अपूर्ण है उसमें आज के लिये - १. वर्तमान में जीने की कोशिश करना- व्यर्थ की चिंताओं से मुक्ति पाना, २. सुखी और प्रसन्न रहना - अपने को सर्व शक्तिमान बनाने का उपाय प्राप्त करना, ३. अपने मन को कोमल रखना - वर्तमान समयानुसार चलने की आदत होना, ४. संसार को रंगमंच समझना-मिले हए संयोग को नाटकीय पात्र समझकर मोह का क्षय करना, ५. अपने आत्मा के प्रेरक मन को तीन कामों में लगाना, अ-परोपकार, ब- अच्छे कार्य करने में प्रमाद न करना, स-सहनशील रहने की आदत बनाना, ६. आडम्बर - विलासिता से दूर रहना, ७. कर्तव्य निष्ठा-जल्दबाजी से व अनिर्णयता से रहित होना, ८. निडर-भय, शंका, राग-द्वेष का अभाव करना | उक्त बातों के आचरणसहित आनंद युक्त आत्मा ही संसार में पुरुषत्व को प्राप्त कर सकती है,अन्य भवभ्रमण के पात्र बने बिना रहते ही नहीं है। यही इस ग्रंथ का मुख्य विषय है सो मनन योग्य है।
इस ग्रंथ में ३२ गाथायें हैं। सम्यक्चारित्र की मुख्यता से इसमें विशेष कथन किया गया है। स्वभाव में लीनता ही सम्यक्चारित्र है, इससे कर्मों की निर्जरा और मुक्ति की प्राप्ति होती है। व्यवहार से व्रत,समिति, गुप्ति आदि का आचरण सम्यक्चारित्र कहलाता है। सम्यक्चारित्र साक्षात् मुक्ति का द्वार है, यह समस्त शल्यों और पर पर्यायों से मुक्त कर आनंद परमानंदमयी सिद्ध परम पद प्राप्त कराने वाला है। ऐसा महिमावान सम्यक्चारित्र का इस ग्रंथ में वर्णन है।
मोर- उक्त विचार मत के तीनों ग्रंथ (तारण त्रिवेणी) एक-एक जीव अपेक्षा कथन करते हैं, जो जितना - जितना इनका मंधन करेगा उतना-उतना अपने में प्रकाश पायेगा, उतना