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भूमिका
त्याग कर सबको छिन्न-भिन्न कर डालता है और अपने घट में बैठे परमात्मा का दर्शन किया करता है। वह यह जानता है कि इस कायारूपी धर्मशाला में रहकर अधिकार कैसा? और अपने को नहीं सुधारा तो बुद्धिमानी कैसी ? जन्म हुआ है तब मरना भी पड़ेगा फिर चिंता क्यों ? अंदर बसने वाले परमात्मा को नहीं देखा तो भक्ति कैसी? इसलिये आलस्य को त्याग कर सजग व सचेत रहता है।
महापुरुषों के पाँच मित्र व पाँच शत्रु होते हैं - १. धर्म मित्र और झूठ शत्रु, २. बुद्धि मित्र और क्रोध शत्रु, ३. संतोष मित्र और लोभ शत्रु ४. विद्या मित्र और अभिमान शत्रु, ५. उदारता से मित्रता और पछतावा से शत्रुता । महापुरुषों का जीवन ही कर्मक्षेत्र बन जाता है परन्तु प्रारब्ध कर्मों का भोग इसमें भी आ उपस्थित होता है और ज्ञानी ज्ञान भाव से सभी कर्मों को निर्जरित कर देता है।
देवयोनि में समस्त शुभ कर्मों के भोग समाप्त हो जाने तथा तिर्यंच योनि में किसी पुण्योदय के प्राप्त हो जाने पर यह मनुष्य पर्याय प्राप्त हुई है, इसको पाकर भी शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करने में अवहेलना करे और भाग्य पर निर्भर रहे तो उसकी नितान्त भूल हो जाती है, ऐसे जीव न तो वर्तमान जीवन में उन्नति कर पाते हैं, न भावी जीवन उनका सुखदाई होता है, उनमें भीरुता अकर्मण्यता आ जाती है, इसलिये शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करके परमार्थ की सिद्धि करना कर्तव्य है जिससे संसार सागर से पार पा जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों पर विजय प्राप्त करने तथा आत्मानंद की प्राप्ति का सहज उपाय कामना रहित सत्पुरुषार्थ ही है।
आचार्य प्रवर संत तारण स्वामी जो सोलहवीं शताब्दी में अगहन शुक्ला सप्तमी विक्रम् संवत् १५०५ को जन्म लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने इन चौदह ग्रन्थों में अपने अनुभव से स्व पर उपकारक ज्ञान की गंगा बहाई है, उनके अनुभवपूर्ण ग्रंथ समुदाय का नाम ही श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी है, जिसमें चौदह ग्रन्थ हैं, इन चौदह ग्रन्थों में निम्न प्रकार विवेचन पूर्वक कथन किया गया है।
१. श्री मालारोहण जी - इस ग्रन्थ में आत्म गुणमाला और उसकी प्राप्ति का उपाय बताया गया हैं, इसमें ऊंकार स्वरूप परमात्मा का कथन किया है कि परमात्मा कोई जुदी चीज नहीं है, परमात्मा अपनी ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप का नाम है। उसका वर्ण मात्राओं में ओं या ॐ स्वरूप आंका गया है, जिसके द्वारा ही ऋषि मुनियों ने अपना अनुभव पाया है। ओंकार को
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श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी जानकर कोई भी जिस पदार्थ को चाहे देख सकता है, ओंकार ब्रह्मप्राप्ति का एक अद्वितीय साधन है। योग सूत्रों में भी परमेश्वर का मुख्य वाचक ओंकार शब्द माना गया है, ओंकार के जाप या अर्ध चिंतन से अध्यात्म मार्ग पर चलने वाला साधक सरलता से एकाग्रता और अंतर्मुखता को प्राप्त कर सकता है और उसके मार्ग में आने वाले सर्व प्रकार के विघ्न स्वयं नष्ट हो जाते हैं वह अनंत चतुष्टय युक्त रत्नत्रय को प्राप्त कर लेता है।
जिस प्रकार कोई बालक झूले में बैठकर झूलता हुआ अपने माता-पिता के अनुरूप आनन्द मग्न होकर गीत गाता है और प्रसन्न रहता है इसी प्रकार ज्ञानी योगी साधक श्वास-प्रश्वास रूपी योग की दो डोरियों से युक्त चित्त की स्थिरता रूपी झूले में बैठकर आत्मा के ध्यान में झूलता हुआ परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप के आनंद में मन्न रहता है और अपने मधुराक्षर ओंकार रूपी संगीत को गाता है।
समस्त भूमण्डल से नमस्कृत ऋषि मुनियों से गाई गई, सब शास्त्रों में वर्णन की गई जगत की मातृशक्ति जिनवाणी है, ओंकार उसका आह्वान है, जो अपनी आत्मानुभूति करने का अनुपम साधन है। अनेकानेक आपदाओं से संतापित मैं उसी ओंकार का आश्रय लेता हूँ, इस भावना का वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है। ओम् के गान करने वाले आचार्यों का कथन है कि परमात्म स्वरूप शाश्वत भगवत् पद की प्राप्ति की अद्भुत सीढ़ी एक ओंकार ही है, जो योगियों को दुर्गम और भक्तों को दुर्लभ, ज्ञानियों को दुश्चिंत है। इस ओंकार को जो अपना आध्यात्मिक कवच बनाता है वह संसार के त्रय तापों से बचकर ओंकार स्वरूप हो जाता है। इस प्रकार ओंकार ज्ञान विज्ञान रूपी वृक्ष का एक सुन्दर सुगन्धित पुष्प है। जैसे-फूलने वाले वृक्ष का सौन्दर्य पुष्प में प्रगट होता है वैसे ही मानव जीवन रूपी वृक्ष का सुन्दर और सुमनोज्ञ पुष्प ओंकार जप से ही प्राप्त अहंत सर्वज्ञ पद ही है।
ओंकार ही समस्त प्रकाशमय पदार्थों का प्रकाश है, ओंकार ही सर्वज्ञ आत्माओं का अमृतमय भोज्य है। मनुष्य भव में अपने पूर्णपने की ओर ले जाने की भूख और उसकी तृप्ति इसी ओम् से ही प्राप्त होती है। मनुष्यों के अंदर जो पापों की राशि घर किये हुए हैं उसको भस्मसात् करने को ओंकार रूपी अग्नि ब्रह्म ज्ञानियों ने पाई है, इसी से यह शक्ति ब्रह्मास्त्र कहलाती है।
इस ग्रंथ में ३२ गाथायें हैं। सम्यक्दर्शन की प्रमुखता से इसमें वर्णन किया गया है।