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श्री ज्यान समुच्चय सार जी संमिक दर्सन सुद्ध, उत्सर्ग ऊर्ध चेयना भावं । गय संकप्प वियप्पं, अप्पा परमप्प तुल्य संकलियं ॥ ५४३ ।। तिअर्थं समय सुद्धं, जानंति रिजु विपुल न्यान सभावं । उत्सर्ग ऊर्ध गुनं, न्यान सहावेन सुद्ध तवयरनं ॥ ५४४ ॥ ध्यानं झान समत्थं, तुढे तह आसवेवि दुवियप्पो । घाय चवक्कय मुक्कं , अप्पानं सुद्ध चेयना रूवं ॥ ५४५ ॥ सुक्लं झानं झायदि, परिनाम संसार सरनि मुक्तस्य । सक्तिं च विक्त रूवं, अइसइवंत सुरिद्धि संजुत्तं ॥ ५४६ ।। झानं अप्प सरूवं, अप्पा परमप्प चेयना सुद्धं । झायंति ऊर्ध सुद्धं, झान समत्थं च न्यान तवयरनं ॥ ५४७ ॥ बारह विहि उवएसं, झानं झायंति सुद्ध तवयरनं । जे साहति स पुरिसा, तत्तो पुन लहइ निव्वानं ॥ ५४८ ॥ दह विहि संमत्तेनय, न्यान उवदेस अर्थ वीजंमि । संषेप सुत्त उत्तं, विवहार अवगाहनेन संजुत्तं ॥ ५४९ ।। प्रवचन केवलि उत्तं, परमं संमत्त सुद्ध सभावं । दह विहि न्यान सरूवं, अप्पा अप्पेन सुद्ध संमत्तं ॥ ५५० ॥ न्यानं न्यान सरूवं, अन्यानं तजंति मिच्छ संजुत्तं । संसार सरनि तिक्तं, न्यानेन न्यान अप्प सभावं ॥ ५५१ ॥ न्यानं सुद्ध सहावं, रागादि दोस सयल विरयंमि । विरयं असुद्ध भावं, अप्पा परमप्प न्यान संमत्तं ॥ ५५२ ॥ उवएसं संसुद्धं, सुद्धं अप्पान अप्पनो सुद्धं । सुद्धं जिनेहि कहियं, सुद्धं संमत्त सुद्ध उवएसं ॥ ५५३ ॥
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी सुद्धं जिन उत्त परं, असुद्ध तिक्तं च सव्वहा सव्वे । सुद्धं उवएस न्यानं, चरनं जिन उत्त उवएस ॥ ५५४ ॥ सुद्धं च सुद्ध झानं, असुद्धं संसार सरनि मुक्तस्य । सुद्धं परमानंद, उवएसं सुद्ध संमत्तं ॥ ५५५ ॥ अर्थ तिअर्थं सुद्धं, सम संमत्त दंसनं सुद्धं । अर्थ समय तिअर्थ, उवएसं अर्थ अर्थ समर्थ ॥ ५५६ ॥ अर्थ अप्प सरूवं, अनर्थं अन्यान मिच्छ विरयंमि । अनेय अनर्थं भावं, तिक्तंते सुद्ध न्यान सहकारं ॥ ५५७ ।। अर्थ न्यान सरूवं, तिलोयं त्रिभुवन तिअर्थ संसुद्धं । विंदस्थं विदंतो, सुद्ध सरूवं तिअर्थ संमत्तं ॥ ५५८ ।। वीजं च न्यान सुद्धं, सुद्धप्पा न्यान दंसन समग्गं । चरनं दुविहि सहावं, सहकारे तवं सुद्ध वीयंमि ॥ ५५९ ॥ देव गुरु धम्म सुद्धं, मिथ्या कुन्यान सयल विरयंमि । संसार सरनि विरयं, वीयं संमत्त सुद्धमप्पानं ॥ ५६० ।। संषेप सुद्ध मइयो, सुयं षिपति नंत संसारे । कम्म मल षिपति भावं, न्यान सहावेन सुयं संषेपं ॥ ५६१ ॥ दंसन न्यान सहावं, अप्प सहावेन सुद्ध सभावं । सुद्धं सुद्ध सरूवं, संमत्तं सुद्ध ममल संषेपं ॥ ५६२ ॥ सूत्रं सुद्ध सहावं, संसूत्रं सास्वतेन चेयना भावं । विकहा वसन असूत्रं, संसारे सरनि सयल विरयंमि ॥ ५६३ ॥ सूत्रं जं जिन उत्तं, तं सूत्रं सुद्ध भाव संकलियं । असूत्रं नहु पिच्छदि, सूत्रं ससरूव सुद्धमप्पानं ॥ ५६४ ॥