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श्री उपदेश शुद्ध सार जी न्यानस्य न्यान रूवं, दंसन दंसेइ न्यान सहकारं ।
अन्यान मिच्छ तिक्तं, न्यानं अन्मोय रूव रूवं च ॥ १५४ ॥ लहु दीरघ नहु पिच्छड़, न्यान सहावेन अन्मोय संजुत्तं । हितमित परिनइ सुद्धं, कोमल परिनाम अन्मोय संजुत्तं ॥ १५५ ॥ सम्मत्त सहित दंसन, न्यान सहित चरन तवयरनं । ममलं ममल सहावं, अन्मोयं न्यान सुग्गए जंति ॥ १५६ ।। मनरंजन गारव उत्तं, मन सहकारेन सहाव संजुत्तं । मन उववन्न सहावं, मन आनंद गारवं भनियं ।। १५७ ॥ गारव मन संजुत्तं, गारव संसार सरनि मोहंधं । मन विषयं च सहावं, मन सहकारेन गारवं दिढें ॥ १५८ ॥ वय तव गहन उवन्नं, छाया कुन्यान संजुत्त वय गहनं । कुन्यानं च उवन्न, गारव अन्मोय नरय वासम्मि ॥ १५९ ॥ संजम सम्मत्त सुभावं, छाया मिच्छत्त सल्य दुर्बुद्धि । मिच्छा मय ससहावं, गारव उववन्न दुष्य वीयम्मि ॥ १६० । सुतं च अनेय भेयं, अंग पुव्वाइ मिच्छ संजुत्तं । गारव मएहि रइयं, मनरंजन राग नरय वासम्मि ॥ १६१ ॥ तवं च तीव्र सहियं, सम्मत्तं सुद्ध मिच्छ सभावं । पर पिच्छंतो गारव, पर पज्जाय नंत दुष्य वीयम्मि ॥ १६२ ।। मन उववन्न सहावं, मन ससहावं च सहनि उवसगं । अन्यानं पिच्छंतो, तव षंडं नरय दुष्य वीयम्मि ॥ १६३ ॥ मनरंजन सुभावं, सोभा सहकार जलस्य सुचि चित्तं । अन्यानं मिच्छत्तं, जलं सहावेन थावरं पत्तं ॥ १६४ ॥
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी सचित्त सहावं धरनं, चित्त सहावेन अन्मोय पर पिच्छं । पज्जावस्य उवन्नं, पज्जय रत्तो तिरिय दुष्य वीयम्मि ॥ १६५ ।। मन मूलं चंचल उत्तं, चंचल सभाव सरनि संसारे । जिन उत्तं नहु पिच्छं, जन उत्तं सहाव गारवं भनियं ॥ १६६ ॥ मनरंजन स सहावं, सचित्त चित्तस्य भाव संजदो होति । मन सुभाव पर पिच्छं, पज्जय रत्तो सुदुग्गए सहियं ॥ १६७ ।। तव वय किरिय स उत्तं, मुत सभाव सयल विन्यानं । अनेय कस्ट अनिस्टं, गारव भावेन निगोय वासम्मि ॥ १६८ ॥ गलिय सुभाव न दिढ़, चेयन आनंद चित्त नहु पिच्छं । सूषम सुभाव रहियं, गारव सहकार दुष्य वीयम्मि ॥ १६९ ।। परपंच वित्ति पिच्छंतो, विभ्रम सुभाव सयल उपपत्ती । विन्यान न्यान नहु पिच्छं, गारव सहकार निगोय वीयम्मि ॥ १७० ॥ दंसन मोहंध स उत्तं, दर्सइ अन्नं च मोहए अंधं । दंसन मोहंध कहियं, अन्यानं नरय दुष्य वीयम्मि ॥ १७१ ।। दर्सइ दंसन उत्तं, अदर्सन सहकार रूव सहियानं । उत्तं जिन उत्त परं, मोहंधं दिस्टि रूव कलिदानं ॥ १७२ ।। देवं देवाधिदेव, देवं वर न्यान दंसनं समग्गं । चरनं अनंत वीज, दर्सन मोहंध अदेव देवं च ॥ १७३ देवं अरूव रूवं, रूवातीतं च विगत रूवेन । न्यानमई ससहावं, दर्सन मोहंध रूव देवं च ॥ १७४ ॥ देवं ऊर्ध सहावं, देवं तिलोयमंत सुपएसं । देवं अनंत नंतं, दर्सन मोहंध अनितं देवं ॥ १७५ ॥
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