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________________ - १. संसारी बहिरात्मा - जिस जीव की इस देह में, एकत्व की है मान्यता । वह कहाता बहिरात्मा, निज रूप जो नहीं जानता। जड़ देह से एकत्व की, ग्रन्थि को जो न खोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥१॥ पर पुद्गलों को देखता, कर्तृत्व पर का ठानता। होकर अहं में चूर, गुरू की सीख भी न मानता ॥ मैं न करूं तो कुछ न होवे, वचन ऐसे बोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥२॥ मैं करू पर का परिणमन, जिसको विकल्प अनंत हैं। पर सोचता इक क्षण नहीं, क्या कह रहे अरिहंत हैं। चैतन्य अनुभवता नहीं, अमृत में विष को घोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥३॥ तिर्यच गति में स्वर्ग में, जाता कभी है नर्क में। होता मनुष तो कुबुद्धि वश, फंसा रहता तर्क में ॥ कुज्ञान खोटी तराजू में, पत्थरों को तौलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥४॥ है तीव्र जिसकी गृद्धता, संसार तन अरू भोग में। वह फंसा रहता रात दिन, उन भोग के ही रोग में। इस तरह केला थंभ के, छिलके ही छिलके छोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥५॥ सत्धर्म की श्रद्धा नहीं, न कर्म का विश्वास है। थोड़ा बहुत कुछ करे तो, वह पुण्य का ही दास है। इस तरह खुद के ही ऊपर, कर्म की रज ओलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥५॥ इस देह को "मैं" मानना, सबसे बड़ा यह पाप है। सब पाप इसके पुत्र हैं, सब पाप का यह बाप है ॥ प्रज्ञा मयी छैनी से ज्ञानी, मोह पर्वत कोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥७॥ दृष्टि की विपरीतता वश, धर्म अमृत न सुहाये । ज्वर ग्रसित व्यक्तिको जैसे,मधुर रस भी नहीं भाये॥ कर्म के वश जीव आंखें, ज्ञान की नहीं खोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥८॥ पर परिणमाने को कहे कि, मैं करूंगा मैं करूंगा। पर एक क्षण भी सोचता नहीं, मैं मरूंगा मैं मरूंगा। अहं से परिपूर्ण, पर कर्तृत्व वाणी बोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥९॥ संयोग अपना था नहीं, न है, न होगा फिर कभी। पर मूढ नित यह मानता, सब "मैं तथा मेरा सभी॥ अज्ञान वश हो आत्मा में, मोह का विष घोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥१०॥ मिथ्यात्व के कारण अनेकों, पाप करते जीव हैं। संयम भवन कैसे बने, मिथ्यात्व की जब नींव है। अज्ञान मय प्राणी कभी नहीं, ज्ञान गठरी खोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥११॥ मिथ्यात्व और अनन्त अनुबंधी, कषाय युगल रहे। फिर तत्व अश्रद्धान व, श्रद्धा अतत्वों की गहे ॥ वह नहीं ब्रह्मानन्द पाता, सत्य जो नहीं बोलता। मिथ्यात्व वश बहिरात्मा, चारों गति में डोलता ॥१२॥ 2050 42
SR No.009711
Book TitleAdhyatma Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year1999
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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