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________________ संस्कार जाति देह में, जिनका कभी जाता न मन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥६॥ जो नाम अथवा काम वश, या अहं पूर्ति के लिये। धरते हैं केवल द्रव्यलिंग, वह पेट भरने के लिये ॥ ऐसे कुगुरू को दूर से तज, चलो ज्ञानी गुरू शरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥७॥ सर्प अग्नि जल निमित से, एक ही भव जाय है। लेकिन कुगुरू की शरण से, भव भव महा दु:ख पाय है। काष्ठ नौका सम सुगुरू हैं, ज्ञान रवि तारण तरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥८॥ जग मांहि जितने भी कुगुरू, सब उपल नाव समान हैं। भव सिंधु में डूबें डुबायें, जिन्हें भ्रम कुज्ञान है । पर भावलिंगी सन्त करते, ज्ञान मय नित जागरण । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ।।९।। निस्पृह अकिंचन नित रहें, वे हैं सुगुरू व्यवहार से । है अन्तरात्मा सद्गुरू, परमार्थ के निरधार से ॥ निज अन्तरात्मा है सदा, चैतन्य ज्योति निरावरण। उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥१०॥ निज अन्तरात्मा को जगालो, भेदज्ञान विधान से । भय भ्रम सभी मिट जायेंगे, सद्गुरू सम्यज्ञान से ॥ वह करे ब्रह्मानन्द मय, मिट जायेगा आवागमन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥११॥ जयमाल चेतन अरू पर द्रव्य का, है अनादि संयोग । सद्गुरू के परिचय बिना, मिटे न भव का रोग ||१| आतम अनुभव के बिना, यह बहिरातम जीव । सद्गुरू से होकर विमुख, जग में फिरे सदीव ||शा भेद ज्ञान कर जान लो, निज शद्धातम रूप। पर पुदगल से भिन्न मैं, अविनाशी चिद्रूप ||३|| गुरू ज्ञान दीपक दिया, हुआ स्वयं का ज्ञान । चिदानन्द मय आत्मा, मैं हूँ सिद्ध समान ||४|| ज्ञाता रहना ज्ञान मय, यही समय का सार । सद्गुरू की यह देशना, करती भव से पार ||५|| जीवों को सर्वज्ञ द्वारा भाषित वीतरागी धर्म प्राप्त करना दुर्लभ है, मनुष्य जन्म प्राप्त होना दुर्लभ है, परन्तु मनुष्य जन्म मिलने पर भी अंतरात्मा एवं वीतरागी सद्गुरू रूप सामग्री प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है। 31 32
SR No.009711
Book TitleAdhyatma Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year1999
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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