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जयमाल
निज चैतन्य स्वरूप में, पर का नहीं प्रवेश । चिन्मय सत्ता का धनी, है सच्चा परमेश ||१|| अरस अरुपी है सदा, शुद्धातम ध्रुव धाम | निश्चय आतम देव को शत शत करूं प्रणाम ||२|| अरिहन्त सिद्ध व्यवहार से, जानो सच्चे देव । निश्चय सच्चा देव है, शुद्धातम स्वयमेव || ३ || वीतराग देवत्व पर, चेतन का अधिकार | सिद्ध स्वरूपी आत्मा, स्वयं समय का सार ||४|| दर्शन ज्ञान अनन्त मय, वीरज सौख्य निधान । पहिचानो निज रूप को, पाओ पद निर्वाण ||५||
अट्ठसट्ठ तीरथ परिभमइ, मूढा मरइ भमंतु । अप्पा देउ ण वंदहि, घट महिं देव अणंदु - आणंदा रे ||
अज्ञानी अडसठ तीर्थों की यात्रा करता है, इधरउधर भटकता हुआ अपना जीवन समाप्त कर देता है किन्तु निजात्मा शुद्धात्मा भगवान की वंदना नहीं करता है। अपने ही घट में महान आनंदशाली देव है। हे आनंद को प्राप्त करने वाले ! अपने ही घट में महान आनंद शाली देव है।
(श्री महानंदि देव कृत आणंदा गाथा- ३)
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२. गुरू स्तुति
अनुभूति में अपनी जिन्होंने, आत्म दर्शन कर लिया। समकित रवि को व्यक्त कर, मिथ्यात्व का तम क्षय किया। रागादि रिपुओं पर विजय पा कर दिये सबको शमन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥१॥
जिनके अचल सद्ज्ञान में, दिखता सतत् निज आत्मा ।
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वे जानते हैं जगत में हर आत्मा परमात्मा ॥ जो ज्ञान चारित लीन रहते हैं सदा विज्ञान घन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥२॥ जिनको नहीं संसार की, अरू देह की कुछ वासना । जो विरत हैं नित भोग से, पर की जिन्हें है आस ना ॥ निर्ग्रन्थ तन इसलिये दिखता है सदा निर्ग्रन्थ मन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥३॥ परित्यागजिनने कर दिया, दुर्ध्यान आरत रौद्र का। शुभ धर्म शुक्ल निहारते, धर ध्यान चिन्मय भद्र का ॥ जग जीव को सन्मार्ग दाता, इस तरह ज्यों रवि गगन | उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ॥४॥
उपवन का माली जिस तरह, पौधों में जल को सिंचता। मिट्टी को गीली आर्द्र कर, वह स्वच्छ जल को किंचता ॥ त्यों श्री गुरू उपदेश दे, सबको करें आतम मगन । उन वीतरागी सद्गुरू को, नित नमन है नित नमन ||५||
जो ज्ञान ध्यान तपस्विता मय, ग्रन्थ चेल विमुक्त हैं। निर्ग्रन्थ हैं निश्चल हैं, सब बन्धनों से मुक्त हैं ।
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