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________________ । सब कर्म विघटें ज्ञान प्रगटे, पूर्ण शुद्ध दशा प्रभो। आठों सुगुण प्रगटें सुसम्यक्, ज्ञान दर्शन शुद्ध जो॥ अगुरूलघु अवगाहना, सूक्ष्मत्व वीरज के धनी। बाधा रहित निर्लेप हैं प्रभु सिद्ध, लोक शिखा मणी॥३७॥ निश्चय तथा व्यवहार से,शाश्वत मुकति का पंथ है। भीतर हुआ है स्वानुभव, तब आचरण निर्ग्रन्थ है। हो पूज्य के सम आचरण, पूजा वही सच्ची कही। गर आचरण में भेद है, तो फिर हुई पूजा नहीं ॥३८॥ अरिहन्त आदि देव पद, निज आत्मा में शोभते । अज्ञान मय जो जीव हैं, वे अदेवों में खोजते । जल के विलोने से कभी, मक्खन निकलता है नहीं। ज्यों रेत पेलो कोल्हूआ में, तेल मिलता है नहीं ॥३९॥ त्यों ही करे जो अदेवों में, देव की अन्वेषणा। पर देव न मिलता कभी, यह जिन प्रभु की देशना ॥ देवत्व का रहता सदा, चैतन्य में ही वास है। कैसे मिले वह अचेतन में, जो स्वयं के पास है ॥४०॥ चैतन्य मय सतदेव की, जो वन्दना पूजा करें। वे परम ज्ञानी ध्यान रत हो, मोक्ष लक्ष्मी को वरें। इस तरह पूजा देव की कर, गुरू का सुमरण करूं। उनके गुणों को प्रगट कर, संसार सागर से तरूं ॥४१॥ शुद्ध गुरू उपासना जो वीतरागी धर्म ध्यानी, भाव लिंगी संत हैं। रमते सदा निज आत्मा में, शांति प्रिय निर्ग्रन्थ हैं। करते मुनि ज्ञानी हमेशा, स्वानुभव रस पान हैं। वे ही तरण तारण गुरू, जग में जहाज समान हैं ॥४२॥ जिनको नहीं संसार तन, भोगों की कोई चाह है। वे जगत जीवों को बताते, आत्म हित की राह है। जो रत्नत्रय की साधना, आराधना में लीन हैं। व्यवहार से मेरे गुरू, जो राग-द्वेष विहीन हैं ॥४३|| ऐसे सुगुरू के सद्गुणों का, स्मरण चिन्तन मनन । करना थुति अरू वन्दना, बस है यही सद्गुरू शरण॥ निज अन्तरात्मा निजगुरू,यह नियतनय से जानना। ज्ञाता सदा रहना सुगुरू की, है यही आराधना ॥४४॥ संसार में जो अज्ञजन, कुगुरू अगुरू को मानते। वे डूबते मझधार में, संसार की रज छानते ॥ इससे सदा बचते रहो, झूठे कुगुरू के जाल से । बस बनो शुद्ध गुरू उपासक, बचो जग जंजाल से ॥४५॥ शुद्ध स्वाध्याय जिस ग्रन्थ में हो वीतरागी, जिन प्रभु की देशना । जो प्रेरणा दे जीव को, तुम करो स्व संवेदना ॥ जिसमें न होवे दोष कोई, पूर्व अपर विरोध का। उसशास्त्र का स्वाध्याय करना,लक्ष्य रख निजबोध का॥४६॥ सत्शास्त्र का अध्ययन मनन, व्यवहार से स्वाध्याय है। ध्रुव धाम का चिंतन जतन,नय नियत का अभिप्राय है। मन वचन तन की एकता कर, लीन हो निज ज्ञान में। स्वाध्याय निश्चय है यही, स्वाधीन हो निज ध्यान में॥४७॥ 19
SR No.009711
Book TitleAdhyatma Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year1999
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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