________________
वक्रोक्तिजीवितम् प्रसिद्ध है, फिर भी इस काव्य मार्ग में इन दोनों का परमार्थ ( काव्य मार्ग में प्रयुक्त होने वाला वास्तविक एवं अपूर्व अर्थ ) यंह ( आगे ६ वीं कारिका में कहा जाने वाला ) है ॥ ८ ॥
इति एवंविघं वस्तुं प्रसिद्धं प्रतीतम्-यो वाचकः स शब्दः, यो वाच्यश्वाभिधेयः सोऽर्थ इति । ननु च द्योतकव्यञ्जकावपि शब्दो सम्भवतः, तदसंग्रहान्नाव्याप्तिः, यस्मादर्थप्रतीतिकारित्वसामान्यादुपचारात्तावपि वाचकावेव । एवं द्योत्यव्यङ्गययोरर्थयोः प्रत्येयत्वसामान्यादुपचाराद्वाच्यत्वमेव । तस्माद् वाचकत्वं वाच्यत्वं च शब्दार्थयोर्लो के सुप्रसिद्ध यद्यपि लक्षणम् , तथाप्यस्मिन् अलौकिके काव्यमार्गे कविकर्मवम॑नि अयमेतयोर्वक्ष्यमाणलक्षणः परमार्थः किमप्यपूर्व तत्त्वमित्यर्थः । कीदृशमिन्याह
इति अर्थात् इस प्रकार की वस्तु प्रसिद्ध अर्थात् ( लोक में ) प्रसिद्ध है कि जो वांचक (है) वह शब्द ( होता है ) और जो वाच्य अर्थात् अभिधेय (है) बह वर्ष (होता है)। ( यदि कोई शंका करे कि) द्योतक और व्यवक भी तो शब्द सम्भव है (जब कि आपने केवल वाचक शब्द ही ग्रहण किया है अतः लक्षण में अव्याप्ति दोष होगा तो उस शङ्का का समाधान करते हैं कि ) उस (बोतक और व्यक्षक) के ग्रहण न करने से अव्याप्ति (दोष ) नहीं हैं, क्योंकि अर्थ की प्रतीतिकारिता रूप सामान्य के कारण उपचार ( लक्षणा अथवा गौणीवृत्ति ) से वे दोनों (द्योतक और व्यंजक शब्द ) भी वाचक ही हुए। इस प्रकार द्योत्य और व्यंग्य अर्थों में भी ज्ञेयत्व (प्रत्येयत्व) सामान्य के कारण उपचार से वाच्यत्व ही ( हो जायगा) इसलिए यद्यपि लोक में शब्द और अर्थ का वाचक रूप एवं वाच्य रूप लक्षण अच्छी तरह प्रसिद्ध है, फिर भी इस अलौकिक काव्यमार्ग अर्थात कविकर्म के पथ में यह इन दोनों का ( हवीं कारिका में ) कहा जाने वाला, परमार्थ कोई ( अनिर्वचनीय ) अपूर्व तत्त्व है । यह अभिप्राय हुआ । तो वह ( अपूर्व तत्त्व ) किस प्रकार का है यह बताते है
शब्दो विवक्षितार्थंकवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि । । अर्थः सहृदयाह्लादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः ॥९॥ ( काव्यमार्ग में विवक्षित अर्थ के वाचक ) अन्य ( बहुत से पर्यायवाची शब्दों ) के रहने पर भी, कहने के लिए अभिप्रेत अर्थ का ( केवल ) एक ही