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प्रथमोन्मेषः
वाचक ( शब्द ) शब्द होता है । ( तथा ) सहदयों को बाह्लादित करने वाला अपने स्वभाव से सुन्दर ( अर्थ ही ) अर्थ होता है ।। ६॥
स शब्दः काव्ये यस्तत्समुचितसमस्तसामग्रीकः । कीटक-- .. विवक्षितार्थंकवाचकः । विवक्षितो योऽसौ वक्तुमिष्टोऽर्थस्तदेकवाचकस्तस्यैकः केवल एक वाचकः । कथम्-अन्येषु सत्स्वपि । अपरेषु तवाचकेषु बहुवपि विद्यमानेषु । तथा च___ काव्य में शब्द वही ( होता है ) जो उस ( काव्य ) के लिए समुचित समस्त सामग्रियों से युक्त होता है । कैसा ( शब्द ) ? विवक्षित अर्थ का एक ही वाचक । विवक्षित अर्थात् जो यह कहने के लिए अभिप्रेत अर्थ है उसका एक वाचक अर्थात् केवल वह ही वाचक ( उस अर्थ को प्रकाशित करने में समर्थ होता है ) कैसे ? अन्यों के रहने पर भी। अर्थात् उस अर्थ के वाचक दूसरे बहुत से ( शब्दों) के रहने पर भी. (जो विवक्षित अर्थ का केवल एकमात्र प्रकाशक होता है वह शब्द ही काव्य में शब्द कहलाने का अधिकारी होता है । ) इसी प्रकार
सामान्यात्मना वक्तुमभिप्रेतो योऽर्थस्तस्य विशेषाभिधायी शब्दः सम्यग वाचकतां न प्रतिपद्यते । यथा
जो अर्थ सामान्यरूप से कहने के लिए अभिप्रेत है, उसकी सम्यक् वाचकता को विशेषरूप से अभिधान करने वाला शब्द नहीं प्राप्त होता है( अर्थात् जहाँ हमें सामान्यरूप का अर्थ विवक्षित है वहां हम ऐसे ही शब्द का प्रयोग करें जो सामान्यरूप का अर्थ दे सके । अन्यथा उसके स्थान पर यदि हम विशेषरूप का अर्थ देने वाले शब्द का प्रयोग करेंगे तो वह शब्द उस अभिप्रेत अर्थ का वाचक न होगा ) जैसे
कल्लोलवेल्लितहषत्पुरुषप्रहारै रत्नान्यमूनि मकराकर माऽवसंस्थाः । कि कौस्तुभेन भवतो विहितो न नाम
याच्याप्रसारितकरः पुरुषोत्तमोऽपि ॥२५॥ हे सागर ( मकरालय ) ! ( अपनी) उत्ताल तरङ्गों द्वारा चंचल किए गए पाषाणों के कठोर आघातों से इन रत्नों को अपमानित मत करो। क्या ( इन्हीं रत्नों में से एक रन) कौस्तुभ ने पुरुषश्रेष्ठ (भगवान् विष्णु) को