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वक्रोक्तिजीवितम्
भी याचना के लिए (तुम्हारे सामने ) हाथ फैलाने के लिए प्रेरित नहीं किया ॥ २५॥
अत्र रत्नसामान्योत्कर्षामिधानमुपक्रान्तम । कौस्तुभेनेति रत्नविशेवामिषायी शब्दस्तद्विशेषोत्कर्षाभिधानमुपसंहरतीति प्रक्रमोपसंहार. वैषम्यं न शोमातिशयमावहति । न चैतद्वक्तुं शक्यते-यः कश्चिद्विशेषे गुणप्रामगरिमा विद्यते स सर्वसामान्येऽपि सम्भवत्येवेति । यस्मात्___यहाँ (कवि ने ) रत्न सामान्य के उत्कर्ष का कथन प्रारम्भ किया था (किन्तु ) 'कौस्तुभेन' यह रत्नविशेष का कथन करने वाला शब्द उस (रत्न) विशेष के उत्सर्ग के कथन में उपसंहार करता है। इस प्रकार प्रारम्भ और उपसंहार का वैषम्य शोभाधिक्य को नहीं धारण करता है। ( अर्थात् कवि ने पहले रलसामान्य के उत्सर्ग का कथन तो प्रारम्भ किया किन्तु 'कौस्तुभेन' कहकर उपसंहार एक रत्नविशेष 'कौस्तुभ' के उत्कर्ष में कर दिया। जिससे यहाँ 'प्रक्रमभङ्ग' दोष आ गया जो कि शोभातिशय का पोषक नहीं है। ( और यह भी नहीं कहा जा सकता कि-जो कोई गुण ) समूह की गरिमा विशेष में रहती है वह सर्वसामान्य में भी सम्भव होती ही है। क्योंकि तन्त्राख्यायिका ११४० में कहा गया है कि
वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम् ।
नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम् ।। २६ ।। अश्व, गज, लोहा ( रत्नादि ), लकड़ी, पत्थर, वस्त्र, स्त्री, पुरुष और जल का (अपने सजातियों से ही) अन्तर, बहुत बड़ा अन्तर होता है ॥२६॥
. तस्मादेवंविधे विषये सामान्याभिधाय्येव शब्दः सहृदयहृदयहारितां प्रतिपद्यते । तथा चास्मिन् प्रकृते पाठान्तरं सुलभमेव-"एकेन किं न विहिता भवतः स नाम" इति ।
इसलिए इस प्रकार ( जहां सामान्यरूप का कथन अभिप्रेत है, उस ) के विषय में सामान्य का अभिधान करनेवाला शब्द ही सहृदयों की हृदयहारिता को प्राप्त होता है। (विशेषरूप का कथन करनेवाला शब्द नहीं । ) और फिर इस प्रकृत ( 'कल्लोलवेल्लित' इत्यादि पद्य ) में 'एकेन किं न विहितो भवतः स नाम' ( अर्थात् क्या एक ( कौस्तुभ ) मणि ने आपको वह यश