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वक्रोक्तिजीवितम्
अन्तर्भूत हो जाने के कारण ( उसका ) गुणीभाव काव्यतत्त्वममंज्ञों के लिये आनन्ददायक नहीं है। साथ ही काव्य के शोभाजनक के रूप में उपनिबद्ध दीपक अलङ्कार के निर्वहणकाल में भङ्ग-सा हो जाने से प्रक्रमभङ्ग ( दोष) जन्य सहृदयों के हृदय का वरस्य आवश्यक हो गया है । (जब कि 'दयितसङ्गमभूषः' के स्थान पर उक्त दोष को दूर करने के लिए ) 'दयितसङ्गति रेनम्' ( अर्थात् मदनश्री को मद ने और उस मद को प्रिय के सङ्गम ने भूषित किया ) यह पाठ सरलता से ही प्राप्य है। जिससे प्रक्रमभङ्ग दोष भी समाप्त हो जायगा, साथ ही 'दयितसङ्गम' का गुणीभाव भी दूर हो जायगा।)
द्वयोरप्येतयोरुदाहरणयोः प्राधान्येन प्रत्येकमेकतरस्य साहित्यविरहो व्याख्यातः । परमार्थतः पुनरुभयोरप्येकतरस्य साहित्यविरहोऽन्यतरस्यापि पर्यवस्यति । तथा चार्थः समर्थवाचकासद्भावे स्वात्मना स्फुरन्नपि मृतकल्प एवावतिष्ठते । शब्दोऽपि वाक्योपयोगिवाच्यासंभवे वाच्यान्तरवाचकः सन् वाक्यस्य व्याधिभूतः प्रतिभातीत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
इन दोनों ( श्लोकसंख्या २१ एवं २४ ) उदाहरणों में प्रत्येक में एक प्राधान्य द्वारा (अर्थात् 'असारं संसार'-में अर्थ के प्राधान्य के कारण अर्थ के तथा 'चारुता वपुरभूषयत्'-में शब्द के प्राधान्य के कारण शब्द के) साहित्य के अभाव की व्याख्या की गई है। वास्तविकता तो यह है कि उन दोनों में एक के भी साहित्य का विरह होने पर दूसरे का भी (साहित्य विरह अपने आप) हो जाता है । और इसी लिए अर्थ ( वाक्य के उपयोगी अर्थ के दे सकने में ). समर्थ शब्द के अभाव में स्वभावतः स्फुरित होता हुआ भी मृतप्राय-सा ही रहता है। और शब्द भी वाक्य के लिए उपयोगी अर्थ के अभाव में अन्य ( चमत्कारहीन ) अर्थ का वाचक होकर वाक्य के लिए व्याधिस्वरूप प्रतीत होता है (अतः यह सिद्ध हुआ कि शब्द और अर्थ में किसी एक का भी साहित्य विरह दूसरे के साहित्य-विरह में पर्यवसित हो जाता है ) इस प्रकार अब अतिप्रसङ्ग की आवश्यकता नहीं ।
प्रकृतं तु । कीदृशे बन्धे-वक्रकविव्यापारशालिनि । वक्रो योऽसौ शास्त्रादिप्रसिद्धशब्दार्थोपनिबन्धव्यतिरेकी षट्प्रकारवक्रताविशिष्टः कविव्यापारस्तक्रियाक्रमस्तेन शालते श्लाघते यस्तस्मिन् एवमपि कष्टकल्पनोपहतेऽपि प्रसिद्धव्यतिरेकित्वमस्तीत्याह-तद्विदा
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