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प्रथमोन्मेषः
यद्यपि इन दोनों ( श्लोकों ) में भी वाक्यविन्यास उस ( परस्परस्पर्धित्वरूप साहित्य के ही प्राधान्य से किया गया है फिर भी प्रधानरूप से कवि की प्रतिभा की प्रोढ़ता ही विद्यमान होती है ।
टिप्पणी :- आचार्य कुन्तक ने अपने उक्त कथन द्वारा काव्य-रचना में कविप्रतिभा को प्रधान बताया है । अर्थात् यदि कवि प्रतिभासम्पन्न है तो उसकी रचना में किसी भी प्रकार सब्दार्थ - साहित्य की परस्पर-स्पधित्वरूपता में कोई बाधा नहीं उपस्थित हो सकती जैसा कि 'रुद्रास्तुलनम्—' ॥२२॥ एवं 'तद्वक्त्रेन्दु विलोकनेन ॥ २३ ॥ उदाहरणों से स्पष्ट है । और यदि कवि प्रतिभासम्पन्न नहीं ( अथवा प्रतिभासम्पन्न होते हुए भी अनवधानवान है ) तो, रचना में 'असारं संसारं - ॥ २१ ॥ की भाँति दोष आ जाना स्वाभाविक ही हैं ।
( अभी तक पूर्व उदाहृत -- 'असारं विरह का उदाहरण देकर ) अब शब्द के ( परस्परस्पधिस्वरूप ) के विरह ( अभाव )
जैसे - ( शिशुपालवध १०1३३ में ) -
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संसारम् -- ' पद्य में भी अन्य शब्द के का उदाहरण (प्रस्तुत करते हैं)
अर्थ. साहित्य साथ माहित्य
चारुता बपुरभूषयदासां तामनूननवयौवनयोगः । तं पुनर्म करकेतनलक्ष्मीस्तां मदो दयितसङ्गमभूषः ॥ २४ ॥
इन ( रमणियों ) के शरीर को सुन्दरता ने, उस ( सुन्दरता ) को पूर्ण ( रूप से विकसित ) नवयौवन के संयोग ने, तथा उस ( नवयोवन ) को मदनश्री ने, तथा उस ( मदनश्री ) को प्रियतम के सम्मिलनरूप भूषण से युक्त मद ने भूषित किया || २४ ॥
दयितसङ्गमस्तामभूषयदिति वक्तव्ये कीदृशो सदः, दयितसङ्गमो भूषा यस्येति । दयितसङ्गमशब्दस्य प्राधान्येनाभिमतस्य समासवृत्तावन्तर्भूतत्वाद् गुणीभावो न तद्विदाह्लादकारी । दीपकालंकारस्य च काव्यशोभाकारित्वेनोपनिबद्धस्य निर्वहणावसरे त्रुटितप्रायत्वात् प्रक्रमभङ्गविहितं सरसहृदय वैरस्यमनिवार्यम् । 'दयितसङ्गतिरेनम्'' इति पाठान्तरं सुलभमेव ।
प्रिय के सङ्गम से उस ( मदनश्री ) को भूषित किया ऐसा कहने के स्थान पर ( कवि ने कहा कि मद ने उसे भूषित किया तो ) कैसे मद ने ? प्रिय का सङ्गम ही है भूषण जिसका ऐसे ( मद ने भूषित किया ) । ( यहाँ ) प्रधानरूप से अभीष्ट ' दयितसङ्गम' शब्द के समासवृत्ति में