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वक्रोक्तिजीवितम् इस प्रकार ( रावण के पराक्रम का सुन्दर-सुन्दर वाक्यों द्वारा) उपनिबद्ध करके, पहले उपनिबद्ध किए गये पदार्थों के अनुरूप दूसरी वस्तु के असम्भव होने से ) अपूर्व ( ढंग से ही ) 'यस्येदृशाः केलयः' ( इस प्रकार की जिसकी क्रीड़ायें हुआ करती थीं—अर्थात् इतने पराक्रम का कार्य जिसके लिये केवल खेल या जिसे वह अनायास ही कर डाले था तो उसके पराक्रमपूर्ण कैसे होंगे ) इस प्रकार ( अन्तिम वाक्य ) उपनिद्ध किया है जिस (के प्रयोग) से अन्य (पूर्वोपनिबद्ध वाक्य ) भी किसी (अपूर्व, अनिर्वचनीव ) रमणीयता को प्राप्त हो गए हैं । और जैसे
तद्वक्त्रेन्दुविलोकनेन दिवसो नीतः प्रदोषस्तथा तद्गोष्ठयैव निशापि मन्मन्थकृतोत्साहैस्तदङ्गार्पणैः। तां संप्रत्यपि मार्गदत्तनयनां द्रष्टुं प्रवृत्तस्य मे
बद्धोत्कण्ठमिदं मनः किम् ॥ २३ ।। ( तापसवत्सराजचरितम् में ) उस के मुखचन्द्र को देखने में दिन ( व्यतीत हो गया ) तथा उसके साथ गोष्ठी करने में ही सन्ध्या ( बीत गई ) एवं कामदेव द्वारा उत्पन्न उत्साह से युक्त उसके अंगों के अर्पण से रात भी बीत गई। फिर भी ( मेरी प्रतीक्षा में ) रास्ते में आखें लगाये हए उसे देखने के लिए मेरा मन ( न जाने ) क्यों उत्कण्ठायुक्त हो रहा है-॥ २३ ॥
इति संप्रत्यपि तामेवंविधां वीक्षितुं प्रवृत्तस्य मम मनः किमिति बद्धोत्कण्ठमिति परिसमाप्तेऽपि तथाविधवस्तुविन्यासो विहितः"अथवा प्रेमासमाप्तोत्सवम्” इति, येन पूर्वेषां जीवितमिवार्पितम् ।
'इस प्रकार अब भी इस प्रकार की ( रास्ते में मेरी प्रतीक्षा में आँख लगाए हुए) उसको देखने के लिए प्रवृत्त मेरा मन ( न जाने ) क्यों उत्कण्ठित है, इस प्रकार ( वाक्य ) वे समाप्त हो जाने पर भी ( कवि ने ) —'अथवा प्रेमासमाप्तोत्सवम्' (अर्थात् प्रेम का उत्सव कभी भी समाप्त नहीं होता, उसमें सदैव उत्कण्ठा बनी ही रहती है ) इस प्रकार ऐसा ( अपूर्व ) वस्तु ( वाक्य ) विन्यास कर दिया है जिससे पूर्व निबद्ध वाक्यों में जान-सी डाल दी गई है।
यद्यपि द्वयोरप्येतयोस्तत्प्राधान्येनैव वाक्योपनिबन्धः, तथापि कविप्रतिभाप्रौढिरेव प्राधान्येनावतिष्ठते । शब्दस्यापि शब्दान्तरेण साहित्यविरहोदाहरणं यथा