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प्रथमोन्मेषः
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( अनिर्वचनीय ) शोभातिशय का पोषण करते हैं । किन्तु 'मरणशरणं वान्धवजनम्' (बन्धुजन मर जायेंगे यह वाक्य उन (अन्य ) वाक्यों की कलामात्र से भी ( किसी भी प्रकार ) स्पर्धा करने में समर्थ नहीं है, अतः काव्यतत्त्वविदों के किये आह्लादजनक नहीं है । एक वाक्य के लिये उपयोगी बहुत से सुन्दर वाक्यों के एक साथ ( कवि के ) मस्तिष्क में अवतरित होने पर ( उस ) वाक्यार्थं को सुचारुरूप से पूर्ण करने के लिए उन ( अवान्तर वाक्यों ) के सदृश दूसरा वाक्य ) प्राप्त करने के प्रयत्न से ( कवि की ) प्रतिभा प्रसन्न हो जाती है। और जैसे कि इसी ( असारं संसारं में (अवान्तर वाक्यों द्वारा ) प्रस्तुत की गई वस्तु के सदृश दूसरी वस्तु भी बड़ी सरलता से ही प्राप्त हो सकती है ( अर्थात् 'मरणशरणं बान्धवजनम्' के स्थान पर ) ' विधिमपि विपन्नाद्भुतविधि' ( ब्रह्मा को भी विनष्ट हो गए अद्भुत विधान वाला ) का प्रयोग कर देने से ( अबान्तर वाक्यों के सदृश यह वाक्य भी चमत्कारकारी हो जायगा । इससे स्पष्ट है कि कवि ने इस वाक्य के प्रयोग में अनवधानता दिखाई है | )
श्लोक )
प्रथमप्रतिभातपदार्थप्रतिनिधिपदार्थान्तरासंभवे सुकुमारतरापूर्वसमर्पणेन कामपि काव्यच्छायामुन्मीलयन्ति कवयः । यथा
( प्रतिभा सम्पन्न ) कविजन ( कोई भी रचना करते समय ) सर्वप्रथम मस्तिष्क में आए हुए पदार्थ के प्रनिनिधिरूप अन्य पदार्थ ( जो कि प्रथम प्रतिभात पदार्थ के साथ स्पर्धा कर सके और उसी की भाँति चमत्कारजनक हो, उस ) के असम्भव होने पर अत्यन्त ही सुकुमार ( पदार्थ ) के अपूर्व ( नये ढंग से ) समर्पण के द्वारा किसी ( अनिर्वचनीय ) काव्य की शोभा का उन्मीलन करते हैं । जैसे—
रुद्राद्रेस्तुलनं स्वकण्ठविपिनोच्छेदो हरेर्वासनं कारावेश्मनि पुष्पकापहरणम् ॥ २२ ॥
( बाल रामायण १. ५१ में कवि राजशेखर रावण के पराक्रम का वर्णन करते हुए कि ) कैलाश पर्वत को उठा लेना, अपने कण्ठरूपी अरण्य का कर्तन करना ( अर्थात भगवान शंकर की सेवा में अपने शिरों का काटकाट कर चढ़ाना ), इन्द्र का कारागार में निवास कराना, पुष्पक ( विमान ) का अपहरण कर लेना ॥ २२ ॥
इत्युपनिबद्धय
पूर्वोपनिबद्धपदार्थानुरूपवस्त्वन्तरासंभवादपूर्वमेव
“यस्येदृशाः केलयः" इति न्यस्तम्, येनान्येऽपि कामपि कमनीयतामनीयन्त । यथा च