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वक्रोक्तिजीवितम् लोकों को अपहृत रत्नोंवाला, लोक को प्रकाशहीन, बान्धवजनों को मरण की शरणवाला, कामदेव को ( तीनों लोकों के जीतने के ) दर्प से हीन, लोगों के नेत्रों के निर्माण को निष्फल तथा इस जगत् को जीर्ण अरण्य बना देने के लिए क्यों उद्यत हो गये हो ॥ २१ ॥
अत्र किल कुत्रचित्प्रबन्धे कश्चित्कापालिकः कामपि कान्तां व्यापादयितुमध्यवसितो भवन्नेवमभिधीयते यदपगतसारः संसारः, हृतरत्नसर्वस्वं त्रैलोक्यम् , आलोककमनीयवस्तुवर्जितो जीवलोकः, सकललोकलोचननिर्माणं निष्फलप्रायम्, त्रिभुवनविजयित्वदर्पहीनः कन्दर्पः, जगजीर्णारण्यकल्पमनयाविना भवतीति किं त्वमेवंविधमकरणीयं कर्तुं व्यवसित इति ।
इस पद्य में किसी प्रबन्ध ( भवभूति-विरचित 'मालतीमाधव' नामक प्रकरण ) में किसी रमणी को हत्या करने के लिए उद्यत किसी कापालिक से ऐसा कहा जा रहा है कि इस ( मालती) के बिना ( उसकी हत्या कर देने पर ) संसार सार से हीन, त्रैलोक्य समस्त रत्नराशि से रहित, जीवलोक देखने में कमनीय वस्तुओं से. हीन, समस्त लोगों के नेत्रों का निर्माण व्यर्थ सा, कामदेव तीनों लोकों को जीतने वाले घमण्ड से हीन, और जगत् जीर्ण जंगल की भांति हो जायगा । अतः तुम क्यों इस प्रकार के ( अनर्थकारी ) न करने योग्य कार्य को ) करने के लिए उद्यत हो गये हो । इति ।।
एतस्मिन् श्लोके महावाक्यकल्पे वाक्यान्तराण्यवान्तरवाक्यसदृशानि तस्याः सकललोकलोभनीयलावण्यसंपत्प्रतिपादनपराणि परस्परस्पर्धीन्यतिरमणीयान्युपनिषद्धानि कमपि काव्यच्छायातिशयं पुष्णन्ति । मरणशरणं बान्धवजनमिति पुनरेतेषां न कलामात्रमपि स्पर्धितुमर्हतीति न तद्विदाह्रादकारि । बहुषु च रमणीयेऽवेक वाक्योपयोगिषु युगपत् प्रतिभासपदवीमवतरत्सु वाक्यार्थपरिपूरणार्थ तत्प्रतिम प्राप्तुमपरं प्रयत्नेन प्रतिभा प्रसाधते । तथा चास्मिन्नेव प्रस्तुतवस्तुसब्रह्मचारिवस्त्वन्तरमपि सुप्रापमेव
"विधिमपि विपनाद्भुत विधिम्" इति। .
महावाक्यतुल्य इस श्लोक के एक दूसरे ( सभी ) वाक्य अन्य वाक्यों के समान उस ( मालती) की समस्त लोकों द्वारा लोभनीय सौन्दर्य की सम्पत्ति के प्रतिपादन में तत्पर होकर, परस्पर स्पर्धा करने वाले, अत्यन्त ही रमणीय ढंग से (कवि द्वारा) उपनिवड होकर काम्य के किसी