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प्रथमोन्मेषः वाचो विषयनैयत्यमुत्पादयितुमुच्यते ।
आदिवाक्येऽभिधानादि निर्मितेर्मानसूत्रवत् ॥ ६॥ इत्यन्तरश्लोकः
यह अन्तर श्लोक है।
वाणी को विषय की सीमा में नियन्त्रित करने के लिए भवन-निर्माण में सूत्रमान (फीते की पैमाइश ) की तरह आरम्भिक याक्य में ही अभिधान आदि ( अनुबन्धचतुष्टय ) कह दिये जाते हैं ।। ६ ।।
टिप्पणी :-इससे ग्रन्थकार यह भी सूचित करना चाहता है कि उसकी सरस्वती का वैभव बहुत ही विशाल है। केवल प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से उसको वह सीमित करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है।
लोकोत्तरचमत्कारकारिवैचित्र्यसिद्धये । काव्यस्यायमलङ्कारः कोऽप्यपूर्वो विधीयते ॥ २॥ अलौकिक चमत्कार को उत्पन्न करनेवाले वैचित्र्य को सम्पन्न करने के लिए किसी अपूर्व, काव्यविषयक अलङ्कार ग्रन्थ का निर्माण किया जा रहा है ॥२॥ ___ अलंकारो विधीयते अलंकरणं क्रियते । कस्य-काव्यस्य | कवेः कर्म काव्यं तस्य । ननु च सन्ति चिरन्तनास्तदलंकारास्तकिमर्थमित्याह-अपूर्वः, तद्वयतिरिक्तार्थाभिधायी । तदपूर्वत्वं तदुत्कृष्टस्य तनिकृष्टस्य च द्वयोरपि संभवतीत्याह-कोऽपि, अलौकिकः सातिशयः । सोऽपि किमर्थमित्याह-लोकोत्तरचमत्कारकारिवैचित्र्यसिद्धये असामान्याह्नादविधायिविचित्रभावसम्पत्तये । यद्यपि सन्ति शतशः काव्यालंकारास्तथापि न कुतश्चिदप्येवंविधवैचित्र्यसिद्धिः ।
अलङ्कार का निर्माण किया जा रहा है अर्थात् शोभाधान किया जा रहा है । किसका ? काव्य का । काव्य कवि का व्यापार है उस कविव्यापार का ( अलङ्करण किया जा रहा है)। यदि ऐसी शङ्का की जाय कि, काव्य के बहुत से प्राचीन अलङ्कार ग्रन्थ हैं अतः ( इस नये ग्रन्थ का निर्माण ) किसलिए है । अतः ग्रन्थकार कहता है अपूर्व ( ग्रन्थ ) अर्थात् उन (प्राचीन ग्रन्थों) से भिन्न अर्थात् मौलिक वस्सु को प्रस्तुत करनेवाले अन्य का निर्माण कर रहे हैं । यह भी कहा जा सकता है-अलङ्कार ग्रन्थ की नवीनता तो उन (प्राचीन ग्रन्थों) में अच्छे बुरे दोनों प्रकार के अन्यों में बा सकती है। इस विषय में कहते हैं-किसी और ही लोकोत्तर वैशिष्टय से युक्त-अतिशय से युक्त (अन्य )। (प्रश्न-ठीक है कि आप अपूर्व अलङ्कार अन्य का