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दक्रोक्तिजीवितम् निर्माण कर रहे हैं) पर वह भी किस लिये ? इसलिये बताते हैं किलोकोत्तर (अर्थाद-असामान्य युक्त ) चमत्कार को उत्पन्न करने वाले वैचित्र्य की सिद्धि करने के लिए अर्थात् असामान्य आह्लाद को उत्पन्न करने वाली विचित्रता की सिद्धि के लिए ( अपूर्व अलङ्कार ग्रन्थ की रचना कर रहे हैं ) । यद्यपि अनेकों काव्य के अलङ्कार ग्रन्थ (चिरन्तन आलङ्कारिकों द्वारा निर्मित ) विद्यमान हैं फिर भी किसी भी अन्य में इस प्रकार की विचित्रता नहीं आ पाई है।
टिप्पणी:-महामहोपाध्याय डॉ० पाण्डुरङ्ग वामन का कथन है
"It appears that Kuntaka mcant the karikas alone to be called काव्यालङ्कार as the karika of the first unmesa states लोकोत्तर-इत्यादि । The vritti on this says ननु च सन्ति चिरन्तनास्तदलङ्कारास्तत् किमर्थमित्याह-अपूर्वः तद्व्यतिरिक्ताभिधायी । "कोऽपि अलौकिकः सातिशयः । लोको "सिद्धये । असामान्याह्लादविधायिविचित्रभावसम्पत्तये । यद्यपि सन्ति शतशः काव्यालङ्कारास्तथापि न कुतश्चिदप्येवंविधवैचित्र्यसिद्धिः It may be noticed that the works of भामह, उद्भट and रुद्रट were called काव्यालङ्कार s. Though the karikas thus appear to have been meant to be called TOTTA ETT the whole work has been refered to by later writers as alferuntfaai Tbe vritti is quite clear on this point
तदयमर्थः-ग्रन्थस्यास्यालङ्कार इत्यभिधानम् । उपमादिप्रमेयजातमभिधेयम् । उक्तरूपवैचित्र्यसिद्धिः प्रयोजनमिति ।
History of Sanskrit Poetics ( P. 225-26 )
अनारशब्दः शरीरस्य शोभातिशयकारित्वान्मुख्यतया कटकादिषु पर्वते, तत्कारित्वसामान्यादुपचारादुपमादिषु, तद्वदेव च तत्सदृशेषु गुणादिषु, तथैव च तदभिधायिनि प्रन्ये शब्दार्थयोरेकयोगक्षेमत्वादेक्येन व्यवहारः, यथा गौरिति शब्दः गौरित्यर्थ इति । तदयमर्थःप्रन्यस्यास्यालद्वार इत्यभिधानम् , उपमादिप्रमेयजातमभिधेयम् , उकरूपवैचित्र्यसिद्धिः प्रयोजामति ।।२॥ - शरीर की शोभा में उत्कृष्टता ले आने के कारण प्रधानतः 'अलङ्कार शब्द का प्रयोग कड़े आदि ( गहनों ) के लिए किया जाता है। शोभातिशय