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वक्रोक्तिजीवितम् । साभिनयविशिष्टा नृत्यन्ती विराजते तां वन्दे नौमीति वाक्यार्थः । तदिदमत्र तात्पर्यम्-यत्किल प्रस्तुतं वस्तु किमपि काव्यालंकारकरणं तदधिदैवतभूतामेवंविधरामणीयकहृदयहारिणीं वायूपां सरस्वती स्तौमीति।
देवी की वन्दना अर्थात् देवी की स्तुति करता हूँ। किन ( देवता) की महाकवियों के मुखशशिरूपी नृत्यशाला में नर्तन करनेवाली ( देवता ) की। कवीन्द्र अर्थात् श्रेष्ठ कविगण उनके वक्वेन्दु अर्थात् मुखचन्द्र वे ही हैं लास्यमन्दिर अर्थात् नृत्यशाला उसमें नर्तकी अर्थात् नाचनेवाली । उस नतंकी की क्या विशेषतायें हैं--
सूक्ति के संस्फुरणों के सुन्दर अभिनय के कारण जगमगाती हुई सुक्तिपरिस्पन्द अर्थात् सुभाषितों के विलसित, वे ही हैं सुन्दर अभिनय अर्थात सुकुमार सात्त्विकादिभाव, उनसे उज्ज्वल अर्थात् सुशोभित । देवी जो कि नृत्यशाला में हाव-भाव के साथ अभिनय पूर्ण अर्थात् नृत्य करती हुई नर्तकी के सदृश महाकवियों के मुख में विशेष प्रकार से शोभित होती हैं (विराजते ) उन देवी को नमस्कार करता हूँ। यह इसका वाक्यार्थ हुआ तो यहां पर तात्पर्य यह निकला कि जो भी कुछ ( यहाँ पर ) प्रस्तुत विषय (किमपि ) है । (वह) काव्यालङ्कार की रचना है उसकी अधिष्ठात्री देवता एवं इस प्रकार की ( अपूर्व) रमणीयता के कारण मनोहर भगवती भारती की स्तुति करता हूँ।
एवं नमस्कृत्येदानीं वक्तव्यस्तुविषयभूतान्यभिधानाभिधेय. प्रयोजनान्यासूत्रयति
इस प्रकार वन्दना करके अब आगे विवेचित की जाने वाली वस्तु से सम्बन्धित संज्ञा, निषय और प्रयोजन को उपन्यस्त करने का उपक्रम करते हैं-( क्योंकि
टिप्पणी:-जिस प्रकार किसी कप, तडाग तथा भवन आदि के निर्माण के पूर्व उसके सीमा विस्तार निर्धारित करने के लिए कि-यह इस रूप में निर्मित होगा-सर्वप्रथम मानसूत्र ( फीते ) के द्वारा उसकी लम्बाई-चौड़ाई बादि निश्चित कर दी जाती है उसी प्रकार अपने प्रतिपाद्य विषय को सूचित करने के लिए अन्धकार प्रारम्भ में ही उसके अनुवन्ध-चतुष्टय प्रस्तुत कर देते है । यह ग्रन्यकार का अभिप्राय है।