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प्रथमान्मेषः इस वाक् के ४ रूप ( या स्पन्द ) हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा एवं वैखरी । उनमें 'परा वाक्' को शिव की चित् शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है-'चितिः प्रत्यवमर्शात्मा परा वाक् स्वरसोदिता'-तन्त्रालोक । यह परा वाक् स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छा से स्फुरित होती है । अन्य तीन पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी इसके स्पन्दरूप में ही हैं । वस्तुतः हमारे प्रयोग में वाक् का वैखरी रूप ही आता है। जैसा कि हमने बताया है परा वायूपा शक्ति का स्पन्द होने के कारण यह वैखरी रूप उससे अभिन्न हुआ । कविकर्म रूप काव्य हमारे सामने अपने वैखरीरूप में ही आता है । अतः कवि उसमें जितना भी वैचित्र्य सम्पादन करता है वह ‘परावाक्' के स्पन्द रूप में ही होता है। इसीलिये आचार्य कुन्तक ने काव्यलक्षणग्रन्थ 'वक्रोक्तिजीवित' में काव्य-विषयक विचार करते समय 'स्पन्द' या परिस्पन्द शब्द का अनेकशः प्रयोग किया है और जैसा कि हम ऊपर सिद्ध कर चुके हैं स्पन्द का प्रयोग प्रायः उपर्युक्त स्वभाव, धर्म व्यापार, विलसित स्वरूप एवं स्फुरितत्व आदि के पर्याय रूप में ही हुआ है।
यथातत्त्वं विवेच्यन्ते भावास्त्रैलोक्यवर्तिनः ।
यदि तन्नाद्भुतं नाम देवरक्ता हि किंशुकाः ॥ २ ॥ इसके अनन्तर कुन्तक अपने प्रयत्न की उपादेयता को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि
त्रिलोकी में स्थित पदार्थों का यदि यथातथ्य रूप में विवेचन किया जाता है तो उसमें अद्भुतता नहीं होगी क्योंकि किंशुक तो स्वभावतः लाल हुआ ही करता है ( अतः यदि कवि यह वर्णन करे कि किंशुक लाल होता है तो उसे हम अद्भुत न होने के कारण साहित्य या काव्य नहीं कहेंगे) ॥२॥
स्वमनीषिकयैवाथ तत्त्वं तेषां यथारचि ।
स्थाप्यते प्रौढिमात्रं तत्परमार्थो न तादृशः ॥ ३ ॥ साथ ही यदि ( कवि जन ) स्वतन्त्र रूप से ( यथारुचि ) उन पदार्थों के तत्त्व का निरूपण केवल अपनी बुद्धि से ही करते हैं ( वास्तविकता का पूर्ण परित्याग कर देते हैं) तो वह केवल प्रोढ़ि ही होगी क्योंकि (उन पदार्थों का) तत्त्व उस प्रकार का नही होता है । ( भाव यह कि यदि कोई कवि अश्व का वर्णन करते हुए कहे कि उसके चार सींगे, आठ पैर होते हैं तो वह भी साहित्य या काव्य नहीं होगा क्योंकि वह वास्तविकता से सर्वथा परे है ) ॥ ३ ॥