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________________ वक्रोक्तिजीवितम् इत्यसत्तर्कसन्दर्भ स्वतन्त्रेऽप्यकृतादरः । साहित्यार्थसुधासिन्धोः सारमुन्मीलयाम्यहम् ।।४।। येन द्वितयमप्येतत्तत्त्वनिर्मितिलक्षणम् | तद्विदामद्भुतामोदचमत्कारं विधास्यति ॥ ५ ॥ अतः इस प्रकार के असत् तर्क के सन्दर्भ वाले स्वतन्त्र में श्रद्धा न रखते हुए मैं साहित्य के अर्थ रूप अमृत के सागर के सार ( या परमार्थ ) का उन्मीलन करने जा रहा हूँ, जिससे कि तत्त्व और निर्मित रूप यह द्वितीय साहित्य मर्मज्ञों के अद्भुत आनन्द व चमत्कार को उत्पन्न करेगा ॥ ४-५ ॥ टिप्पणी :-कुन्तक ने यहां पर काव्यविषयक दो मतों का प्रतिपादन किया है। प्रथम मत के अनुसार काव्य में भी ( शास्त्रादि की भाँति ) केवल वस्तु के यथातथ्य स्वरूप का वर्णन करना चाहिए । तथा दूसरा मत इस बात को प्रतिपादित करता है कि अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः । यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते । अर्थात् कवि पूर्ण स्वतन्त्र है वह जैसा ही चाहे वैसा वर्णन काव्य में करे। • परन्तु आचार्य कुन्तक इव दोनों मतों से ही पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हैं। क्योंकि वे न तो कवि को इतनी स्वतन्त्रता ही देना चाहते हैं कि वह बिल्कुल वास्तविकता से कोसों दूर पदार्थ का मनमाना वर्णन करे और न वे पदार्थों के यथातथ्य रूप में सीधे सादे भोंडे वर्णन को ही काव्य या साहित्य मानने को तैयार हैं । अतः वे दोनों ही मतों का समन्वय चाहते हैं । तभी समाहित्य का वास्तविक अर्थ समझा जा सकेगा। इसीलिए काव्य की परिभाषा भी उन्होंने'शब्दार्थों सहितौ' इत्यादि दी है। ये दोनों ही मत उन्हें अमान्य हैं। इस स्थल की व्याख्या करते हुए आचार्य विश्वेश्वर जी ने स्वभावोक्तिवादी के पूर्व पक्ष को प्रस्तुत कराकर उसका खण्डन करवाते हुए वक्रोक्ति पक्ष की स्थापना करने का प्रयास करते हुए जो श्लोकों का कुछ ऊटपटांग अर्थ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, इसे वे ही समझ सकते हैं। क्योंकि कुन्तक की वक्रोक्ति तो इनमें प्रस्तुत दोनों मतों से भिन्न है। अन्यथा उन्हें साहित्यार्थसुधा सागर के सारोन्मीलन की क्या आवश्यकता। साथ ही 'इत्यसत्तकंसन्दर्भ स्वतन्त्रेऽप्यकृतादरः' कहने की क्या आवश्यकता थी, यदि वक्रोक्तिवादी कवि को पूर्ण स्वच्छन्द ही बना देता है। वक्रोक्ति का यह मतलब कदापि नहीं है कि कवि जो कुछ भी मनमाना तत्त्वहीन वर्णन करे .
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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