________________
वक्रोक्तिजीवितम्
है, जैसे अग्नि अपनी शक्ति दाहकत्व से अभिन्न है। अतः शिव का शक्ति से अभेद सिद्ध हुआ। परम शिव इन्हीं पाँच शक्तियों के द्वारा जगत्प्रपञ्च को स्फुरित करता है । अर्थात् उसकी जब यह इच्छा होती है कि 'मैं एक से अनेक हो जाऊँ तो उसकी शक्ति में स्पन्दन क्रिया होती है। इस प्रकार शक्ति में कुछ-कुछ परिस्फुरण होता है जो किञ्चिच्चलन के कारण 'स्पन्द' कहा जाता है । यही शक्ति का 'स्पन्द' ही वस्तुतः जगत है। यह स्पन्द' शक्ति से अभिन्न होता है क्योंकि वह उसका स्वभाव, स्वरूप, एवं धर्म ही तो होता है। जैसा कि 'प्रत्यभिज्ञाहृदय' में कहा गया है-'पराशक्तिरूपा चितिरेव भगवती शक्तिः शिवभट्टारकाभिन्ना तत्तदन्तजगदात्मना स्फुरतीति ।' इस प्रकार शक्ति, शिव से अभिन्न है एवं स्पन्द (जगत् ) शक्ति से अभिन्न, अतः शिव से जगत अभिन्न हआ। अत एव शैवागम केवल परमशिव की ही ( अद्वैत ) सत्ता स्वीकार करता है। इस जगद्वैचित्र्य का उसमें ठीक उसी प्रकार आभास होता है जैसे कि मयूर के अण्डे के भीतर रहनेवाले एकरूप तरल पदार्थ में मयूर के बड़े हो जाने पर उसके रंगवैचित्र्य का आभास होने लगता हैं । परमार्थतः वह रङ्गव चित्र्य उस एकरूप तरल पदार्थ का ही स्वरूप होता है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि इस जगत्रितयरूप चित्रकर्म के विधायक शिव ही हैं एवं इस चित्रकर्म के लिये उनकी शक्ति का परिस्पन्द मात्र ही उपकरण है। उन्हें अन्य उपकरण की आवश्यकता नहीं । इसीलिये वृत्तिकार ने उन्हें 'शक्तिपरिस्पन्दमात्रोपकरण' कहा है !
इस 'स्पन्द' को हम निम्नप्रकार से भी प्रकट कर सकते हैं :( क ) 'स्पन्द' शक्ति का स्वभाव ( आत्मीय भाव) ही है । (ब) 'स्पन्द' शक्ति का धर्म है।
(ग) 'स्पन्द' शक्ति का व्यापार हैं । . (घ) 'स्पन्द' शक्ति का विलसित है ।
(ङ) 'स्पन्द' शक्ति का स्वरूप ( अपना ही रूप ) है । (च) 'स्पन्द' शक्ति से अभिन्न है । (छ) 'स्पन्द' शक्ति का स्फुरितत्व है। - (ज) यह दृश्यमान ( अनुभूयमान ) जगद्रूप वैचित्र्य शक्ति का
'स्पन्द' ही है। हमारे साहित्य दर्शन में अर्थ को शिवरूप में एवं पाणी को उनकी शक्तिरूप में स्वीकार किया गया है-'अर्थः शम्भुः शिवा वाणी'-इति ।