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( ६१ ) चितम' का व्याख्यान करते हैं-"तस्य पदार्थस्य या स्वस्पन्दमहिमा स्वभावोत्कर्षस्तस्योचितमनुरूपम् ।" इत्यादि ।
इस प्रकार इतने निदर्शनों से यह बात स्पष्ट है कि इन स्थलों पर कुन्तक ने स्वभाव के पर्यायरूप में स्पन्द का और स्वभाव का स्पन्द के पर्यायरूप में प्रयोग किया है।
( ख ) स्पन्द का धर्म के पर्याय-रूप में प्रयोग (१) रूढिवैचित्र्यवक्रता के लक्षण प्रसङ्ग में ( २१८-९)।
यत्र रूढेरसम्भाव्यधर्माध्यारोपगर्भता।
सद्धर्मातिशयारोपगर्भवं वा प्रतीयते ॥ में प्रयुक्त 'धर्म' शब्दों का पर्याय देते हैं-(१) यत्र यस्मिन् विषये रूढ़िशब्दस्य असम्भाव्यः सम्भावयितुमशक्यो यो धमः कश्चित् परिस्पन्दः तस्याध्यारोप-इत्यादि । तथा (२) 'संचासो धर्मश्च सद्धर्मः विद्यमानः पदार्थस्य परिस्पन्दः। (२) आगे 'अतिशयोक्ति' अलङ्कार का लक्षण देते हुए ( ३।२९।) __ यस्यामतिशयः कोऽपि विच्छित्या प्रतिपाद्यते ।
वर्णनीयस्य धर्माणां तद्विदाहाददायिनाम् ॥ में आये 'वर्णनीयस्य धर्माणाम्' का पर्याय देते हैं-'प्रस्तावाधिकृतस्य वस्तुनः स्वभावानुसम्बन्धिनाम् परिस्पन्दानाम् ।"
( ३ ) तथा उपमालङ्कार का निरूपण करते हुए ( ३२२८) विवक्षितपरिस्पन्दमनोहारित्वसिद्धये' में आये परिस्पन्द की व्याख्या करते हैं-'विवक्षितो वक्तुमभिप्रेतो योऽसौ परिस्पन्दः कश्चिदेव धर्मविशेषः ।'
(४) तथा जैसा हम पहले दिखा पाये हैं कि स्पन्द के पर्यायरूप में उन्होंने स्वभाव का अनेकशः प्रयोग किया है। एकत्र वर्णनीय वस्तु का विषयविभाग . करते हुए ( ३३५) ___ 'भावानामपरिम्लानस्वभावौचित्यसुन्दरम् ।' में आये का स्वभाव का अर्थ करते हैं-'अपरिम्लानः प्रत्यप्रमरिपोषपेशलो यः स्वभावः पारमार्थिको धर्मस्तस्येत्यादि ।'
इन निदर्शनों से स्पष्ट है कि इन विभिन्न स्थलों पर कुन्तक ने धर्म के पर्याय रूप में स्पन्द तथा स्पन्द के पर्याय रूप में धर्म का प्रयोग किया है ।
(ग) परिस्पन्द का व्यापार के पर्याय-रूप में प्रयोग (1) काव्य का प्रयोजन बताते हुए (१॥४)।
व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्यम्यवहारिभिः ।