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( ६० ) आचार्य कुन्तक द्वारा दी हुई 'वक्रोक्तिजीवित' की
कारिकाओं की वृत्ति में स्पन्द के विभिन्न पर्याय प्राचार्य कुन्तक काश्मीरी थे । काश्मीर के शैव दर्शन का उन पर प्रभूत प्रभाव है। 'स्पन्द' शब्द जैसा कि विवेचन कर चुके हैं 'शैवदर्शन' का ही है। इस शब्द का प्रयोग प्राचार्य कुन्तक ने अपने प्रन्थ 'वक्रोक्तिजीवित' में अनेक स्थलों पर किया है। उनके वृप्तिभाग के प्रथम 'मंगलश्लोक' के विषय में निर्देश करते हुए हमने कुन्तक की शैवाद्वैत की सत्ता स्वीकृति का संकेत किया था। हमारे इस अभिमत की पुष्टि स्वयं कुन्तक द्वारा दिये गये स्पन्द के विभिन्न पर्यायों की दार्शनिक अर्थ के साथ साति दिखाने पर हो जायगी।
(क) स्पन्द का स्वभाव के पर्याय-रूप में प्रयोग (१) काव्यमार्ग में अर्थ किस रूप का होना चाहिए यह बताते हुए (का. १९)-'अर्थः सहृदयाह्लादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः' की व्याख्या करते हैं'अर्थश्च वाच्यलक्षणः कीदृशः ? काव्ये यः सहृदयाः काव्यार्थविदस्तेषामाह्लादमानन्दं करोति यस्तेन स्वस्पन्देन आत्मीयेन स्वभावेन सुन्दरः सुकुमारः
इति ।
(२) स्वभावोक्ति अलङ्कार के खण्डन के प्रसङ्ग में ( १११२ ) 'स्वभावव्यतिरेकेण वक्तुमेव न युज्यते' में आये 'स्वभावव्यतिरेकेण' का पर्याच देते हैंस्वपरिस्पन्दं विना निःस्वभावं वक्तुमभिधातुमेव न युज्यते न शक्यते इति ।
( ३ ) आगे इसी प्रमङ्ग में आयी हुई ( १।१४ ) 'भूषगत्वे स्वभावस्य विहिते भूषणान्तरे' में आये हुए ‘स्वभावस्य की व्याख्या करते हैं-भूषणत्वे स्वभावस्य अलङ्कारत्वे स्वपरिस्पन्दस्य इति । . ( ४ ) इसके अनन्तर विचित्रमार्ग का लक्षण करते हुए ( ११४१ ) 'स्वभावः सरसाकूतो भावाना यत्र बध्यते' में आये स्वभाव का पर्याय देते हैं-“यत्र यस्मिन् भावानां स्वभावः स्वपरिस्पन्दः सरसाकूतो रसनिर्भराभिप्रायः इत्यादि ।"
( ५ ) तदनंतर औचित्य गुण का स्वरूप बताते हुए ( ११५४ ) 'आच्छाद्यते स्वभावेन तदप्यौचित्यमुच्यते ।' में आये हुए स्वभाव की व्याख्या करते हैं'यत्र यस्मिन् वक्तुरभिधातुः प्रमातुर्वा श्रोतुर्वा स्वभावेन स्वपरिस्पन्देन वाच्य. मभिधेयमित्यादि।
(६ ) आगे चल कर उत्प्रेक्षा अलङ्कार के एक भेद का निरूपण करते हुए (...) प्रतिभासात्तथा बोद्धः स्वस्पन्दमहिमोचितम' में आये स्वस्पन्दमहिमो.