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चतुर्थोन्मेषः
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द्विषां विघाताय विधातुमिच्छतो रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः ॥४॥
रिपुतिमिरमुदस्योदीयमानं दिनादौ दिनकृतमिव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः ॥ ४२ ॥
एते दुरापं समवाप्य वीर्यमुन्मूलितारः कपिकेतनेन ॥ ४३ ।।
शत्रुओं के विवश के लिये व्यापार करने की इच्छा रखने वाले राजा ( युधिष्ठिर ) की एकान्त में अनुमति प्राप्त कर (वनेचर ने कहा ) ॥ ४१ ॥
( तथा ) अन्धकार के समान शत्रुओं को दूर कर उदित होने वाले सूर्य की भांति उदीयमान तुम्हे लक्ष्मी पुनः प्राप्त हो ॥ ४२ ॥
तथा ( इस प्रकार पाशुपत आदि के लिये तपस्या कर उनकी प्राप्ति से ) दुर्लभ पराक्रम को प्राप्त कर अर्जुन इन ( दुर्योधनादि शत्रुओं ) का उन्मूलन करेंगे । ४३ ॥.
इत्यादिना दुर्योधननिधनान्तां धर्मराजाभ्युदयदायिनीं सकलामपि कथामुपक्रम्य कविना निबध्यमानं यत् तेजस्विवृन्दारकस्य दुरोदरद्वारा दूरीभूतविभूतेः प्रभूतद्रुपदात्मजानिकारनिरतिशयोद्दीपितमन्योः कृष्णद्वैपायनोपदिष्टविद्यासंयोगसम्पदः पाशुपतादिदिव्यास्त्र प्राप्तये तपस्यतोगाण्डीवसुहृदः पाण्डुनन्दनस्यान्तरा किरातराजसम्प्रहरणात समुन्मीलितानुपमविक्रमोल्लेखं कमप्यभिप्रायं प्रकाशयति । ___ इत्यादि के द्वारा दुर्योधन के मरमपर्यन्त युधिष्ठिर के अभ्युदय को प्रदान करनेवाली सम्पूर्ण कथा को भी प्रारम्भ कर उपनिबद्ध किया जाने वाला जो, तेजस्वियों में प्रधान, जुंए के द्वारा दूर हो गये ऐश्वर्य वाले, द्रौपदी के प्रचुर अपकार से अत्यधिक उद्दीप्त क्रोध वाले, कृष्णद्वैपायन द्वारा शिक्षित विद्या के संयोग की सम्पत्ति वाले पाशुपत आदि दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति के लिये तपस्या करते हुए गाण्डीवसखा पाण्डुपुत्र अर्जुन के किरातराज से युद्ध के बीच प्रकट किए गए अद्वितीय पराक्रम का वर्णन है । ( वह ) किसी ( अनिर्वचनीय ) आशय को व्यक्त कर रहा है। ___ इस प्रकार व्याख्या, इस विवेचन को और अधिक विस्तृत रूप में प्रस्तुत करती हुई एक अन्तरश्लोक के साथ समाप्त हो जाती है । उस स्थल के पाण्डु लिपि में अत्यधिक बस्पष्ट एवं अपूर्ण होने से उसे मा० उपभूत नहीं कर कैं।