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चतुर्षोन्मेषः
४३५ पुरुष-श्रीमान् जी, पाप शान्त हो, पाप शान्त हो। चन्द्रगुप्त की अपने प्रजाजन पर ऐसी नृशंस बुद्धि कहाँ ? (हो सकती है)।
राक्षसः-अलभ्यमनुरक्तवान् किमयमन्यनारीजनम् ?
राक्षस-तो फिर क्या ये किसी अप्राप्य पराई स्त्री में अनुरक्त हो गए थे (जिसके न मिलने पर मरने जा रहे हों)। . पुरुषः-(कर्णी पिधाय) अज! सन्तं पाब, सन्तं पाबं | अभूमी क्खु एसो विणअणिधाणस्स सेटिजणस्स, बिसेसदो जिष्णुदासस्स । (आर्य ! शान्तं पापं, शान्तं पापम् | अभूमिः खल्वेष विनयनिधानस्य वणिग्जनस्य, विशेषतो जिष्णुदासस्य ।)
पुरुष--(दोनों कान बन्द करके) यहाशय जी, पाप शान्त हो, पाप शान्त हो, अरे यह तो विनम्रता के आगार वाणिग्जन के लिए सर्वथा असम्भव ( अभूमि ) है, विशेष कर फिर जिष्णुदास के लिए ( तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती)।
राक्षप्तः-क्मिस्य भवतो यथा सुहृद एव नाशो विषम् ।
राक्षस - तो फिर क्या इसके ( भी विनाश ) का जहर (तुम्हारी ही तरह) . मित्र का विनाश है।
पुरुष-आर्य । अथ किम् ( अज ! अध इं)।
पुरुष-हाँ महोदय, तब क्या (सुहृदविनाश ही तो इसकी मृत्यु का कारण है)। पुनर्भङ्गयन्तरेण व्याचष्टेसामाजिकजनाह्लादनिर्माणनिपुणैर्नटः । तद्भुमिकां समास्थाय निर्वर्तितनटान्तरम् ॥ १२ ॥ क्वचित्प्रकरणस्यान्तःस्मृतं प्रकरणान्तरम् । सर्वप्रबन्धसर्वस्वकलां पुष्णाति वक्रताम् ॥ १३ ॥ पुनः दूसरी विच्छत्ति के द्वारा प्रकरण वक्रता के अष्टम भेद को ) व्याख्या करते हैं
कहीं ( किसी एक ) प्रकरण के अन्तर्गत, सामाजिक लोगों के आनन्द को उत्पन्न करने में सिद्धहस्त नटों द्वारा, उन ( सामाजिकों) की भूमिका में स्थित होकर ( अर्थात् सामाजिक बन कर ), दूसरे नटों का निर्माण कर उपस्थित किया गया ( स्मृत) अन्य प्रकरण सम्पूर्ण प्रबन्ध की प्राणभूत बक्रता को पुष्ट करता है ॥ १२-१३॥