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________________ ४३४ वक्रोक्तिजीवितम् पुरुष-( सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव तथा आश्रय रूप षाड्गुण्य के संयोग से सुदृढ़ तथा ( साम, दाम, दण्ड और भेद रूप ) उपायों की परम्परा से निर्मित पाशमुख वाली चाणक्य की नीति छः रस्सियों (अथवा ६ गुनी रस्सियों) के संयोग से सुदृढ़ अनेकों उपायों से निर्मित फन्देवाली. रस्सी के समान शत्रु को वश में करने ( या बांधने में बड़ी ही सरलता से समर्थ है ( अतः ) सर्वोत्कर्ष युक्त है ।। ३८ ॥ इस पद्य की उन्होंने क्या आलोचना की यह पता नहीं, उसके बाद उन्होंने नीचे उद्धृत प्रकरण को उद्धृत किया है तथा उसकी भी प्रकरणवक्रता को दिखाते हुए व्याख्या की है जो पढ़ी नहीं जा सकी । वह प्रकरण इस प्रकार है राक्षसः-भद्र ! अथामिप्रवेशे तव सुहृदः को हेतुः ? किमौषधिपथातिगैरुपहतो महान्याधिमिः । राक्षस-अच्छा महाशय जी! आप के मित्र के अग्नि में प्रवेश करने का क्या कारण है ? क्या औषधिपथ का अतिक्रमण करने वाली ( दवाओं से असाध्य ) महाव्याधियों के द्वारा उत्पीडित हैं ( जो मरना चाहते हैं ) पुरुषः-अज्ज ! णहि णहि । | आर्य ! नहि नहि । । पुरुष-श्रीमान् जी, नहीं, नहीं ( ऐसी बात नहीं है ) राक्षसः-किमग्निविषकल्पया नरपतेनिरस्तः क्रुधा ? राक्षस-(तो) क्या अग्नि और विष के समान ( भयंकर ) राजा के क्रोध से प्रताडित किए गए हैं ( जो मरना चाहते हैं )। पुरुषः-अज्ज ! सन्तं पाबं, सन्तं पाबं । चन्दउत्तस्स जणपदेसु अणिसंसा पहिवक्षी । ( आर्य । शान्तं पापं शान्तं पापम् | चन्द्रगुप्तस्य जनपदेष्वनृशंसा प्रतिपत्तिः । and the पुरुष relating to चन्दनदास begining with भद्रमुख, अग्निप्रवेश महृदस्ते को हेतुः and ending with पुरुष swords अज्ज अधई is explai. ned with reference to the above कारिका." (व० जी० पृ० २३४ ) स्पष्ट है कि यदि आचार्य जी डा० ड के इस कथन को सावधानी से समझते तो उन्हें यह लिखने की आवश्यकता न पड़ती कि "उद्धरण बहुत लम्बा हो जाने के भय से यशे बीच का बहुत सा भाग छोड़ दिया गया है" (ब० जी० पृ० ५१९) क्योंकि यदि मलग्रन्थकर्ता ने उस भाग को अपनी पाण्डुलिपि में उद्धृत कर रखा है तो सम्पादक को क्या अधिकार कि उसे घटा दे।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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