________________
४३०
पक्राक्तिपापितम्
अवैमि कार्यान्तरमानुषस्य विष्णोः सुताख्यामपरां तनुं त्वाम् । सोऽहं कथनाम तवाचरेयमाराधनीयस्य धृतेविघातम ।।३१।।
मैं तुम्हें ( राक्षस विनाश रूप ) कार्य हेतु मनुष्य रूप धारण करने वाले विष्णु की पुत्र कहे जाने वाली मूर्ति समझता हूँ भला वही मैं पूजनीय आपकी प्रीति का (धृ प्रीतो' इति धातोः स्त्रियां क्तिन् ) विघात कैसे कर सकता हूँ ( अर्थात् आपसे शत्रुता का आचरण कैसे कर सकता हूँ)॥ ३१ ॥
कराभिघातोत्थितकन्दुकेयमालोक्य बालातिकुतूहलेन । हृदात्पतज्ज्योतिरिवान्तरिक्षादादत्त जैत्राभरणं त्वदीयम् ।। ३२ ।।
हाथ के धक्के से उछल गए गेंद वाली इस बाला ( कुमुद्वतो ) ने अत्यन्त कुतूहल के साथ अन्तरिक्ष से गिरते हुए नक्षत्र के समान तालाब से गिरते हुए आप के 'जैत्र' नामक आभूषण को पकड़ लिया ॥ ३२ ॥
तदेतदाजानविलम्बिना ते ज्याघातरेखाकिणलान्छनेन । भुजेन रक्षापरिषेण भूमेरुपैतु योगं पुनरंसलेन ॥ ३३ ॥
तो यह ( आभूषण ) पुनः आपके घुटनों तक लटकने वाली, प्रत्यञ्चा की चोट की रेखा के चिह्न रूप लान्छन वाली भूमि की रक्षा के लिये अर्गल रूप बलवान् भुजा से युक्त हो जाये ( अर्थात् इसे आप अपनी भुजा में बाँध लें ) ॥ ३३ ॥
इमां स्वसारश्च यवीयसी मे कुमुद्वतीं नार्हसि नानमन्तुम् । आत्मापराधं नुदती चिराय शुश्रूषया पार्थिव पादयोस्ते ।। ३४ ॥
तथा हे राजन् ! आपके चरणों की चिरकाल तक सेवा के द्वारा अपने ( आभूषण हरण रूप ) अपराध को मिटाने की इच्छा वाली इस मेरी छोटी बहन कुमुदती को आज्ञा प्रदान करने की कृपा करें ॥ ३४ ॥ पुनरप्यस्याः प्रभेदमुद्भावयति
यत्राङ्गिरसनिष्यन्दनिकषः कोऽपि लक्ष्यते । पूर्वोत्तरैरसम्पाद्यः साङ्कादेः कापि वक्रता ॥ १० ॥ फिर भी इस ( प्रकरण वक्रता ) के प्रभेद को प्रकाशित करते हैं
जहाँ पर पहले तथा बाद के ( अङ्कों ) द्वारा सम्पादित न की जाने वाली अङ्गी रस के प्रवाह की कोई विशेष कसोटी दिखाई पड़ती है वह अङ्क आदि (प्रकरण ) की कोई लोकोत्तर वक्रता होती है ॥ १० ॥
साढादेः कापि वक्रता...'प्रकरणस्य सा काप्यलौ ककी वक्रता वक्रभावो भवतीति सम्बन्धः । यत्राङ्गिरसनिष्यन्दनिकषः कोऽपि