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चतुर्तोन्मेषः
४३१ लक्ष्यते-यत्र यस्यामङ्गी रमो यः प्राणरूपः तस्य निष्यन्दः प्रवाहः, तस्य काञ्चनस्येव निकषः परीक्षापदविपयो विशेषः कोऽपि 'भूतनिर्वाणनिरुपमो लक्ष्यते ...। किं विशिष्टः पूर्वोत्तरेरससम्पाद्यः, प्रापरवृत्तैरकाद्यैः सम्पादयितुमशक्यः । यथा
वह अङ्क आदि की कोई वक्रता ( होती है ) ...... प्रकरण की वह कोई लोकोत्तर वक्रता अर्थात् बांकपन होता है । जहाँ अङ्गी (प्रधान ) रस के प्रवाह की कोई कसोटी दिखाई पड़ती है। जहाँ अर्थात् जिसमें जो प्राणभूत मुख्य रस होता है, उसका निष्यन्द अर्थात् जो प्रवाह उसकी सोने की कसोटी के समान परीक्षास्थान का कोई विशेष विषय प्राणी के मोक्षतुल्य निरुपम परिलक्षित होता है। कैसा-(विषय )-पूर्व तथा उत्तर वालों के द्वारा असम्पाद्य अर्थात् पहले तथा बाद में स्थित अङ्ग आदि के द्वारा सम्पादित न किया जा सकने वाला ( विशेष दिखाई पड़ता है )। जैसे
विक्रमोर्वश्यामुन्मत्ताङ्कः । ( यत्र ) विप्रललम्भशृङ्गारोऽङ्गी रसः ।
तथा च तदुपक्रम एव राजा ( ससम्भ्रमम् )-आ दुरात्मन् , तिष्ठ तिष्ठ, क नु खलु प्रियतमामादाय गच्छसि । ( विलोक्य) कथं शैल. शिखराद् गगनमुत्प्लत्य बाणैमोमाभवति । (विभाव्य सबाष्पम् ) कथं विप्रलब्धोऽस्मि ।
विक्रमोर्वशीय में 'उन्मत्ताङ्क'। (जहां) विप्रलम्भ शृङ्गार अङ्गी रस है। जैसे कि उसके प्रारम्भ में ही-राजा (घबड़ाहट के साथ ) ऐ दुरात्मा, ठहर, ठहर ! ( मेरी) प्रियतमा को लेकर कहाँ जा रहा है ? ( देख कर ) अरे ! यह पहाड़ की चोटी से आकाश में उड़ कर मुझ पर बाण बरसा रहा है। ( समझ कर आँखों में आँसू भर कर ) कैसा ठगा गया हूँ।
नवजलधरः सन्नद्धोऽयं न दृतनिशाचरः
सुरधनुरिदं दूराकृष्टं न नाम शरासनम् । अयमपि पटुर्धारासारो न बाणपरम्परा
कनकनिकषस्निग्धा विद्युत् प्रिया न ममोर्वशी ।। ३५ ॥ (आकाश में दिखाई पड़ने वाला यह तो नवीन बादल है न कि युद्ध करने के लिए तैयार मतवाला राक्षस । दूर तक खींचा गया यह इन्द्र का धनुष है न कि राक्षस का धनुष । तथा यह भी तीव्र जलधारा का सम्पात्त है नकि बाणों
१. यहाँ डा० डे ने 'भूतनिर्वाण' को मूल से हटा कर पता नहीं क्यों पादटिप्पणी में दे दिया था। हमने उसे संगत समझ कर मल में दे दिया है।