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तो अब सहोक्ति के प्रमाणयुक्त ( स्वरूप का ) निरूपण ( ग्रन्थकार ) करते
हैं - यत्रेत्यादि ( कारिका के द्वारा ) । उसे श्रेष्ठजनों ने सहोक्ति अलङ्कार माना
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पदसमूह के द्वारा अर्थों
है अर्थात् सहृदयों ने उसे स्वीकार किया है । कैसी ( है वह सहोक्ति ) – जहाँ अर्थात् जिस में एक ही वाक्य के द्वारा अर्थात् अभिन्न अर्थात् वाक्यार्थ के तात्पर्यभूत पदार्थों का एकसाथ ही समान काल में ही उक्ति अर्थात् कथन होता है वहाँ (सहोक्ति होती है ) । किस लिये (ऐसी उक्ति होती है)वर्णनीय अर्थ की सिद्धि के लिए । वर्णनीय अर्थ अर्थात् प्रधान रूप से कहने के लिए अभिप्रेत पदार्थ की निष्पत्ति के लिए। तो कहने का तात्पर्य यह कि — जहाँ पर प्रस्तुत पदार्थ की सिद्धि के लिए दूसरे वाक्य के द्वारा भी कही जाने वाली वस्तु सुन्दरता के साथ उसी वाक्य के द्वारा कही जाती है । जैसे—
हस्त दक्षिण मृतस्य शिशार्द्विजस्य जीवात विसृज शूद्रमुनौ कृपाणम् ।
रामस्य पाणिरसि निर्भर गर्भखिन्न
देवीविवासन पटोः करुणा कुतस्ते || १५६ ||
ऐ रे दाहिने हाथ ब्राह्मण के मरे हुए बच्चे के प्राणों के लिए तू ( इस ) शूद्र तपस्वी के ऊपर कृपाण का वार कर आखिर तू है तो एकदम भारी पड़ गए हुए गर्भ के कारण परेशान देवी ( सीता ) को निकाल देने में चालाक राम की भुजा न ! तुझे दया कहाँ ? ।। १५६ ।।
( यथा च ) -
उच्यतां स वचनीयमशेषं नेश्वरे परुषता सखि साध्वी | आनयैनमनुनीय कथं वा विप्रियाणि जनयन्ननुनेयः ॥ १५७ ॥
( और जैसे )
( नायिका कहती है) उस शठ नायक के प्रति सारे उसके दोष कह डालो, ( सखी कहती है ) स्वामी के विषय में ऐ सखी, कठोर वचन उचित नहीं होता ( फिर नायिका कहती हैं ) किसी भी तरह से उन्हें मना कर ले आओ । ( सखी कहती है) अप्रिय कार्य करने वाला व्यक्ति मनाने योग्य कैसे हो सकता है ।। १५७।।
( यथा वा )
किं गतेन न हि युक्तमुपैतुं कः प्रिये सुभगमानिनि मानः । योषितामिति कथासु समेतैः कामिभिर्बहुरसा धृतिरूहे ॥ १४८ ॥